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Tuesday, March 31, 2015

A public meeting On STATE AND COMMUNALISM: Travesty of Justice in Hashimpura massacre, 1987

Janhastakshep: A campaign against Fascist Designsd

Delhi

 

INVITES YOU

To

A public meeting

On

STATE AND COMMUNALISMTravesty of Justice in Hashimpura massacre, 1987

 

Venue: GANDHI PEACE FOUNDATION, Deen Dayal Marg (Near ITO)

 

Date: 9th April 2015

 

                                                 Time: 5.30 PM   

 

·        Justice (Retd.)  Rajinder achchar, member of the PUCL fact-finding team  into the genocide.

·        Rebeca John, Lawyer representing the ccase.

·        Saeed Naqvi, senior journalist

And others

 

 

Friends,

Playing communal card and communal killings for electoral gains are not the monopoly of communal organizations only but even so-called secular parties also play communal cards leading to the increasing trend of communalization of the state apparatuses including judiciary. Most glaring example of connivance of state and its judicial apparatus is the judgment in the Hashimpura massacre in 1987 in which 42 men were cold-bloodedly killed by the UP PAC and 5 managed to survive by pretending to be dead to narrate the ordeal. After 28 years of the proceedings, the court acquitted all the accused of one of the most gruesome state organized massacres. No one killed them. In 1987 the then Rajiv Gandhi government, having come to power with unprecedented parliamentary majority after the anti-Sikh pogrom of Delhi in 1984, opened the lock of the now no-more Babari Masjid at Ayodhya,  to counter the ongoing Mandir campaign of BJP under the leadership of L K Adwani. The decision to open the lock was protested at many places by different sections of the society. Muslims, being the community directly aggrieved, came out in large numbers to protest this communal  move by the Congress governments at Centre as well as in UP. As has been the experience over the years, whenever the Muslims come out in large numbers to protest it  is termed as riot. The then state Home Minister, P Chidambaram has been reported to have instructed the state government to 'crush the Muslims.' Following the tip the 41 battalion of the communally trained PAC (Provincial Armed Constabulary of UP), in the night of 22-23 May 1987, raided the Hashimpura village in the name of a search operation. Many Muslim men were arbitrarily picked up quefrom outside the mosque and huddled in a truck. They were taken to a lonely spot on the bank of Ganga canal and many of them shot dead with the service rifles by the uniformed policemen and their bodies thrown into the canal. Rest was taken to the banks of the Hinden River, shot and their bodies were left there.

 

The entire incident would have simply been buried without any consequences to the perpetrators but for a timely report filed by Vibhuti  Narayan Rai, the then SP of Gaziabad and later supported by the testimonies of 5 survivors of the massacre.

 

After 28 years of legal proceedings in the case, the court set aside the testimonies of the survivors to acquit the culprit policemen giving them the benefit of doubt. Apparently, no one killed the victims.

 

This judgment conforms to the emerging pattern in which the courts in different parts of the country have acquitted the perpetrators of heinous crimes may they be against the dalits or the minorities. The acquittal of Ranvir Sena killers in the Laxampur Bathe and Bathani Tola massacres in Bihar for similar reasons are other cases in point.

 

However, there is a pattern in the madness. Such crimes cannot but be committed with active connivance or direct participation of the state machinery. In any such instance the government and the police ensure that every shred of evidence is destroyed to save the culprits. It ought to be ensured in the interest of justice that the suspected government agencies are kept out of investigation in such cases.

 

What is particularly noteworthy is that the ruling class parties have done little more than pay lip service to the cause of the victims in such instances of gross miscarriage of justice. Mere statements of protest and symbolism have come to replace the need for a sustained campaign towards the ends of justice.

 

Janhastakshep seeks a broader discussion on the issue of communalization of .the security forces and the judiciary.  Please joins us in the discourse. 

 

-sd-

 

Ish Mishra

Convener

शत प्रतिशत हिंदुत्व का ताजा फार्मूला घर वापसी के जरिये हिंदुत्व और अपनी जाति में लौटे बिना गैरहिंदुओं को आरक्षण नहीं मिलें,इसका चाकचौबंद इंतजाम हो रहा है। सच का सामना करें अब भी कि बहुजन ही जाति उन्मूलन के सबसे ज्यादा खिलाफ हैं और बहुजन जिसदिन जाति की जंजीरें तोड़ देंगे न जाति रहेगी और न हिंदू साम्राज्यवाद का नामोनिशान रहेगा। हिंदुत्वकरण का यह धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद हिंदुत्व का पुनरूत्थान नहीं है यह बाकायदा मनुस्मृति के मुताबिक देश की अर्थव्यवस्था से प्रजाजनों का सिसिलेवार बहिस्कार और नरसंहार का कार्निवाल है। पलाश विश्वास

शत प्रतिशत हिंदुत्व का ताजा फार्मूला

घर वापसी के जरिये हिंदुत्व और अपनी जाति में लौटे बिना गैरहिंदुओं को आरक्षण नहीं मिलें,इसका चाकचौबंद इंतजाम हो रहा  है।


सच का सामना करें अब भी कि

बहुजन ही जाति उन्मूलन के सबसे ज्यादा  खिलाफ हैं

और बहुजन जिसदिन जाति की जंजीरें तोड़ देंगे न जाति रहेगी और न हिंदू साम्राज्यवाद का नामोनिशान रहेगा।

हिंदुत्वकरण का यह धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद हिंदुत्व का पुनरूत्थान नहीं है यह बाकायदा मनुस्मृति के मुताबिक देश की अर्थव्यवस्था से प्रजाजनों का सिसिलेवार बहिस्कार और नरसंहार का कार्निवाल है।

पलाश विश्वास

सबसे पहले साफ यह कर दूं कि कि कोई होगा ईश्वर किन्हीं समुदाय केलिए,कोई रब भी होगा,कोई खुदा होगा तो कोई मसीहा ,फरिश्ता और अवतार।उनकी आस्था और उनके अरदास पर हमें कुछ भी कहना नहीं है जिनपर नियामतों और रहमतों की बरसात हुई हैं।हमें उनकी आस्था और भक्ति से तकलीफ भी नहीं है और न हमारी हैसियत शिकायत लायक है।


हम सिरे से आस्था से बेदखल हैं।किसी ईश्वर,किसी मसीहा और किसी अवतार ने हमें कभी मुड़कर भी नहीं देखा।इसलिए नाम कीर्तन की उम्मीद कमसकम हमसे ना कीजिये।बेवफा भी नहीं हम।लेकिन हमसे किसी ने वफा भी नहीं किया।


हमने न किसी धर्मस्थल में घुटने टेके हैंं और न किसी पुरोहित का यजमान रहा हूं और न किसी पवित्र नदी या सरोवर में अपने पाप धोये हैं।न मेरा कोई गाडफादर या गाड मादर है।हम किसी गाड मदर या गाडफादर के नाम रोने से तो रहे।


ताजा खबर यह है कि जाति के आधार पर जो अहिंदू बहुजन दूसरे धर्मों के अनुयायी होकर भी आरक्षण का लाभ लेना चाहते हैं,उनके लिए घर वापसी के अलावा आरक्षण के सारे दरवाजे गोहत्या निषेध की तरह बंद करने की तैयारी है।


मोदी सरकार और संघपरिवार का साफ साफ मानना है कि जातिव्यवस्था सिर्फ हिंदुओं में है और इसके आधार पर आरक्षण का लाभ सिर्फ हिंदुओं को मिलना चाहिए।


धर्मांतरित जिन बहुजनों ने दूसरे किसी धर्म को अपनाया है और वहां जाति व्यवस्था नहीं है,भविष्य में उन्हें उस धर्म के अनुयायी रहते हुए हिदुओं की जाति व्यवस्था के मुताबिक आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।


घर वापसी के जरिये हिंदुत्व और अपनी जाति में लौटे बिना गैरहिंदुओं को आरक्षण न मिलें,इसका चाकचौबंद इंतजाम हो रहा  है।


भारत को 2021 तक ईसाइयों और मुसलमानों से मुक्त करने के लिए शत प्रतिशत हिंदुत्व का यह अचूक रामवाण अब आजमाया ही जाने वाला है।फिर देखेंगे कि कैसे गैर हिंदू होकर रोजी रोटी कमायेंगे।कैसे गैरहिंदू होकर भी आरक्षण का मलाई बटोरते हुए अपनी अपनी जाति से चिपके रहेंगे और हिंदू न बनने का साहस रखेंगे।


हमारे लिए खबर यह कतई नहीं कि लौहपुरुष रामरथी लालकृष्ण आडवाणी फिर कटघरे में हैं बाबरी विध्वंस के मामले में।


हम उनको कटघरे में खड़ा करने की टाइमिंग देख रहे हैं कि बाबरी मामला रफा दफा होने के बाद प्रवीण तोगड़या जैसों के उदात्त उद्घोष राम की सौगंध खाते हैं, भव्य राममंदिर फिर वहीं बनायेंगे के महाकलरव मध्ये रफा दफा राममंदिर बाबरी  प्रकरण को फिर नये सिरे से दावानल की शक्ल देने से धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के खिलखिलाते कमल से कितनी कयामतें और बरसने वाली हैं।


शत प्रतिशत हिंदुत्व के एजंडे और 2021 तक भारत को ईसाइयों और मुसलमानों से मुक्त कराने के लिए  आहूत राजसूय यज्ञ में तो फिर क्या संघ परिवार अपने सबसे मजबूत,सबसे तेज और सबसे आक्रामक दिग्विजयी अश्व को बलिप्रदत्त दिखाकर सारे भारत में नये महाभारत की बिसात तो नहीं बिछा रहा है,हमारे दिलोदिमाग में ताजा खलबली यही है।


गौर कीजिये,अदालती सक्रियताओं के बावजूद मुक्त बाजारी अर्थव्यवस्था के तमाम अहम मामलों में मसलन भोपाल गैस त्रासदी,आपरेशन ब्लू स्टार और सिखों के नरसंहार,बाबरी विध्वंस के आगे पीछे देश विदेश दंगों के कार्निवाल और गुजरात नरसंहार के मामलों में दशकों की अदालती कार्रवाई के बावजूद न्याय किसी को नहीं मिला है।न फिर कभी मिलने के आसार हैं।राजनीति की बासी कढ़ी उबाल पर है।


सच यह है कि न्याय की लड़ाई को ही धर्मोन्मादी महाभारत में अबतक तब्दील किया जाता रहा है और न्याय पीड़ितों से हमेशा मुंह चुराता जा रहा  है।


गौरतलब है कि इन तमाम माइलस्टोन घटनाओं के मध्य अभूतपूर्व धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण और बहुसंख्य बहुजन जनता के व्यापक पैमाने पर हिंदुत्वकरण की नींव पर खड़ा है आज का मुक्त बाजार।


यह हम पहली बार नहीं लिख रहे हैं और शुरु से हम लिखते रहे हैं ,बोलते रहे हैं कि मनुस्मृति कोई धर्म गर्ंथ नहीं है ,वह मुकम्मल अर्थशास्त्र है और वह सिर्फ शासक वर्ग का अर्थशास्त्र है जो प्रजाजनों को सारे संसाधऩों,सारे अधिकारों और उनके नैसर्गिक अस्तित्व और पहचान को जाति में सीमाबद्ध करके उन्हें नागरिक और मानवाधिकारों से वंचित करके सबकुछ लूट लेने का एकाधिकारवादी वर्चस्ववादी रंगभेदी नस्ली अर्थतंत्र और समाजव्यवस्था की बुनियाद है।मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था और ग्लोबल हिंदू साम्राज्यवाद का फासीवादी मुक्तबाजारी बिजनेस फ्रेंडली विकासोन्मुख राजकाज भी वही मनुस्मृति अनुशासन की अर्थव्यवस्था की निरंकुश जनसंहार संस्कृति की बहाली है।


अर्थशास्त्री बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर इस सत्य का समाना कर चुके थे और उन्हें मालूम था कि एकाधिकारवादी वर्णवर्चस्वी नस्ली इस शोषणतंत्र की मुकम्मल अर्थव्यवस्था की बुनियाद जाति है,हिंदू साम्राज्यवाद का एकमेव आधार जाति है,और इसीलिए उन्होंने जाति उन्मूलन का एजंडा दिया और वंचितों को जाति के आधार पर नहीं,वर्गीय नजरिये से देखा।जाति उन्मूलन के लिए वे जिये तो जाति उन्मीलन के लिएवे मरे भी।


वक्त है अब भी सच का सामना करें अब भी कि

बहुजन ही जाति उन्मूलन के सबसे ज्यादा खिलाफ हो गये हैं

और बहुजन जिस दिन जाति की जंजीरें तोड़ देंगे

न जाति रहेगी और

न हिंदू साम्राज्यवाद का नामोनिशान रहेगा।


हिंदुत्वकरण का यह धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद हिंदुत्व का पुनरूत्थान नहीं है यह बाकायदा मनुस्मृति के मुताबिक देश की अर्थव्यवस्था से प्रजाजनों का सिसिलेवार बहिस्कार और नरसंहार का कार्निवाल है।


हमारे परम आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े से पढ़े लिखे बहुजनों को बहुत एलर्जी है कि वे पालिटिकैली करेक्टनेस की परवाह किये बिना सच को सच कहने को अभ्यस्त हैं।बहुजनों को वे सुहाते नहीं है जबकि वे प्रकांड विद्वान होने के सात साथ बाबासाहेब के निकट परिजन भी हैं जो बाबासाहेब के नाम पर कोई राजनीति नहीं करते हैं दूसरे परिजनों और अनुयायियों की तरह।


जिन मुद्दों पर मैं रोजाना अपने रोजनामचे में पढ़े लिखे बहुजनों की नींद में खलल डालने की जोर कोशिश कर रहा हूं और जिन मुद्दों पर उनके यहां सिरे से खामोशी हैं,उन मुद्दों पर हमारी आनंदजी से लगातार लगातार लंबी बातें होती रही हैं।सूचनाओं से भी हमारे लोगों को कुछ लेना देना नहीं है।इसलिए वह सिलसिला बंद करना पड़ रहा है।


बाबासाहेब जाति उन्मूलन एजंडे  में ही न सिर्फ भारतीय जनगण और न सिर्फ अछूतों, आदिवासियों, पिछडो़ं और स्त्रियों,किसानों और मजदूरों की मुक्ति का रास्ता देखते थे,बल्कि मानते रहे होंगे कि यह एकाधिकार प्रभुत्व से भारतीय अर्थव्यवस्था में आम जनता के हक हकूक बहाले करने का एकमात्र रास्ता है,जिसके लिए साम्राज्यवाद और सामंतवाद दोनों ही मोर्चे पर मुक्तिकामी जनता का जनयुद्ध अनिवार्य है इस राज्यतंत्र को सिरे से बदलकर समता और सामाजिक न्याय आधारित वर्गविहीन जातिविहीन समाज की स्थापना के लिए।


भारत के वाम ने इस कार्यभार को कितना समझा ,कितना नहीं समझा,इस पर यह संवाद फिलहाल नहीं है।बाबासाहेब को कभी दरअसल वाम ने सीरियसली समझने की कोशिश की है और अछूत वोटबैंक के मसीहा से ज्यादा उन्हें कोई तरजीह दी है,वाम आंदोलन में सिरे से अनुपस्थित अंबेडकर का किस्सा यही है।अलग से इसे साबित करने की जरुरत नहीं है।वाम मित्र और विशेषज्ञ इसपर कृपया गौर करें तो शायद बात कोई बने।


सच यह है कि इस कार्यभार को स्वीकार करने में कोई बहुजन पढ़ा लिखा किसी भी स्तर पर तैयार नहीं है और बाबासाहेब के अनुयायी होने का एक मात्र सबूत उसका यह है कि या तो जयभीम कहो,या फिर जय मूलनिवासी कहो या फिर नमो बुद्धाय कहो और हर हाल में अपनी अपनी जाति को मजबूत करते रहो।


सत्ता में भागीदारी के लिए बहुजन एकता और सत्ता में आने के बाद बाकी दलित पीड़ित अन्य जातियों के सत्यानाश की कीमत पर सवर्णों से,प्रभूवर्ग से राजनीतिक समीकरण साधकर सभी संसाधनों और मौकों को सिर्फ अपनी जाति के लिए सुरक्षित कर लेना बहुजन राजनीति है।यह समाजवाद भी है।


बदलाव,समता और सामाजिक न्याय का कुल मिलाकर यही एजंडा है जिसका मनुस्मृति शासन ,मनुस्मृति अर्थव्यवस्था,नस्ली भेदभाव,वर्ण वर्चस्व के विरुद्ध युद्ध से कोई लेना  देना नहीं है और न बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के एजंडे से।


उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र,यूपी बिहार में सामाजिक बदलाव का पूरा इतिहास जातियुद्ध के सिवाय,जाति वर्चस्व के सिवाय,हिंदुत्व की समरसता के सिवाय़ क्या है,पता लगे तो हमें भी समझा दीजिये।



अपनी अपनी जाति की गोलबंदी के लिए बाबासाहेब के जन्मदिन,बाबासाहेब के तिरोधान दिवस और बाबासाहेब के दीक्षा दिवस का इस्तेमाल करते हुए हम क्रमशः ब्राह्मणों से अधिक ब्राह्मण ,ब्राह्मणों से अधिक कर्मकांडी और ब्राह्मणों से सौ गुणा ज्यादा जातिवादी मनुस्मृति के पहरुए,मनुस्मृति के झंडेवरदार बजरंगी बनते चले जा रहे हैं और नीले रंग पर भी अपना दावा नहीं छोड़ रहे हैं।बहुजनों में अंतरजातीय विवाह का चलन नहीं है जबकि ब्राह्मणों और सवर्णों से रिश्ते बनाने का कोई मौका बहुजन पढ़े लिखे छोड़ते नहीं है और अपने कुलीनत्व में बहुजनों से हरसंभव दूरी बनाये रखने में कोई कोताही बरतते नहीं है।


अपनी जाति के लिए ज्यादा से ज्यादा आरक्षण की लड़ाई एक नया महाभारत है।इससे दबंग जातियां कोई किसी से पीछे नहीं है।जिन्हें आरक्षण मिला नहीं है,वे आरक्षण की मृगतृष्णा में दूसरे बहुजनों के खून की नदियां पार करने की तैयारी करने से हिचक नहीं रहे हैं।


ऐसा हमने रोजगार संकट के विनिवेश निजीकरण कारपोरेट राजकाज समय में विभिन्न राज्य में खूब देखा है।आप भी याद करें।नाम उन जातियों का बताना उचित न होगा।इसलिए जानबूझकर उदाहरण दे नहीं रहा हूं।


यह बहुजन सामज है दरअसल।इस सच का सामना किये बिना हम मुक्तबाजार के वधस्थल पर भेडो़ं की जमात के अलावा कुछ नहीं हैं और हमारा अंतिमशरण स्थल फिर वही संघपरिवार का समरस हिंदुत्व है।


अपने आनंद तेलतुंबड़े सच का समाना करने में हमसे ज्यादा बहादुर हैं और सच सच कहने से नहीं हिचकते कि आरक्षण की व्यवस्था से जाति व्यवस्था को संवैधानिक वैधता मिली है और जाति व्यवस्था दीर्घायु हो गयी है।


आरक्षण के लाभ जो तबका जाति के नाम पर उठा चुका है,उनका सारा कृतित्व व्यक्तित्व और वजूद जाति अस्मिता पर निर्भर हैं और अपनी संतानों को कुलीनत्व और नवधनाढ्य तबके में शामिल करने की अंधी दौड़ में वह तबका जाति को ही मजबूत कर रहा है।


वंचित बहुजन जिनके सामने जीने का कोई सहारा नहीं है,जो निरंतर बेदखली का शिकार है,जो नागरिक और मानवाधिकारों से वंचित हैं,जो या तो मारे जा रहे हैं या थोकभाव से आत्महत्या के शिकार हो रहे हैं,उन बहुजनों से पढ़े लिखे बहुजनों का कोई ताल्लुकात नहीं है।


जिस जाति व्यवस्था की वजह से बहुसंख्यबहुजन मारे जा रहे हैं,पढ़े लिखे मलाईदार बहुजन संघ परिवार के एजंडे के मुताबिक उसी जाति व्यवस्था को मजबूत करने का हर संभव करतब कर रहे हैं और जाति उन्मूलन पर बात करते ही हायतोबा मचाकर किसी को भी ब्राह्मणवादी करार देकर सिरे से बहस चलने नहीं देते हैं।


बाबासाहेब ने सच ही कहा था कि सिर्फ उन्हें नहीं,बल्कि बहुसंख्य बहुजनों को लगातार धोखा दे रहे हैं पढ़े लिख मलाईदार बहुजन,जिनका जीवन मरण जाति का गणित है और जाति के गणित के अलावा उनके दिलोदिमाग को कुछ भी स्पर्श नहीं करता ।


स्वजनों की खून की नदियां उन्हें कहीं दीखती नहीं हैं।दीखती हैं तो उन्हें पवित्र गंगा मानकर उसमे स्नान करके खून से लथपथ होने में भी उन्हें न शर्म आती है और न हिचक होती है।


विनिवेश और संपूर्ण निजीकरण के जमाने में आरक्षण से अब रोजगार और नौकरियां मिलने के अवसर नहीं के बराबर हैं क्योंकि स्थाई नियुक्तियां हो नहीं रही हैं और सरारी नियुक्तियां हो न हो,सरकारी क्षेत्र का दायरा अब शून्य होता जा रहा है।यह आरक्षण सिर्फ और सिर्फ राजनीति आरक्षण है जिसेसबहुजनों का अब कोई भला नहीं हो रहा है,बहुजनों का सत्यानाश करनेवाले अरबपति करोड़पति नवब्राह्मण तबका जरुर पैदा हो रहा है जो बहुजनों को भेड़ बकरियों की तरह हांक रहा है और उनका गला भी बेहद प्यार से सहलाते हुए रेंत रहा है।


बहुजन पढ़े लिखे मलाईदार तबके ने इसे रोकने के लिए बामसेफ जैसे जबरदस्त संगठन होने के बावजूद पिछले तेइस साल तक कोई पहल उसी तरह नहीं की ,जैसे ट्रेड यूनियनों ने मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था के नरसंहारी अश्वमेध का विरोध न करके बचे खुचे कर्मचारियों के बेहतर वेतनमान बेहतर भत्तों और सहूलियतों की लडाई में ही सारी ऊर्जा लगा दी।


मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के बजाय नवधनाढ्य सत्ता वर्ग में शामिल कर्मचारी इस व्यवस्था की सारी मलाई खुद दखल करने की लड़ाई लड़ते रहे हैं और जाति इस दखलदारी की सबसे अचूक औजार  है।



हमारी मानें तो संघ परिवार का कोई विशेष योगदान नहीं है  हिंदुत्व के इस पुनरूत्थान में।


नरेंद्र मोदी ब्राह्मण नहीं हैं।

आडवाणी भी ब्राह्मण नहीं हैं।

बाबरी विध्वंस से लेकर कारसेवकों और उनके अगुवा समुदायों के अलग अलग चेहरे देखें,तो वे ब्राह्मण राजपूत कम ही होंगे,जिन्हें कोसे गरियाये बिना बहुजन राजनीति का काम नहीं चलता।संघ परिवार में ब्राह्मणों की जो जगह थी,वह अब बहुजनों के कब्जे में है।

अपने ही नरसंहार का सामान जुटाने में लगे हैं बहुजन।


धर्मोन्मादी बहुजन कारसेवक बहुजन हीं हैं और संघ परिवार के हिंदुत्व की कामयाबी का रसायन लेकिन यही है।


संघ परिवार ने इसे ठीक से समझा है और इस रसायन के सर्वव्यापी असर के लिए जो कुछ भी करना चाहिए,सबकुछ किया है और उनका सबसे बड़ा दांव निःसंदेह नरेंद्रभाई मोदी ओबीसी है,जो जाति पहचान और समीकरण के हिसाब से कमसकम बयालीस से लेकर बावन फीसद तक जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं।


वामदलों ने किसी भी स्तर पर कभी बहुजनों को नेतृत्व देने की कोशिश नहीं की न बहुजनों की वहां कोई सुनवाई हुई है और देशभर में हाशिये पर हो जाने के बावजूद वाम सच का सामना करने को अभ भी तैयार नहीं है,तो बहुजनों के सार्वभौम हिंदुत्वकरण में कामयाब संघ परिवार के मुकाबले हवा हवाई युद्ध घोषणाओं के सिवाय हमारे लिए फिलहाल करने को कुछ नहीं है।


लौहपुरुष को कटघरे में खड़े हो जाने से जो हर्षोल्लास है,उसका दरअसल मतलब कुछ और है।


भोपाल गैस त्रासदी,आपरेशन ब्लू स्टार और सिखों के नरसंहार,बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार के मामलों में हमने अंधे कानून का दसदिगंत व्यापी जलवा देखा है तो मध्यबिहार के तमाम नरसंहार के मामलों में यही होता रहा है।


कानून के राज का करिश्मा यह है कि दलित और स्त्री उत्पीड़न के तमाम मामलों में यही सच बारंबार बारंबार दोहराया जाता रहा है।


कानून के राज का करिश्मा यह है कि फर्जी मुठभेड़ों और फर्जी आतंकी हमलों के तमाम मामले लेकिन कभी खुले ही नहीं है।


कानून के राज का करिश्मा यह है कि नक्सली और माओवादी जिन्हें करार दिया जाता है,जो राष्ट्रद्रोही करार दिये जाते हैं,उन्हें भी न्याय नहीं मिलता है।

कानून के राज और मिथ्या संप्रभू लोकतंत्र का करिश्मा यह है कि इरोम शर्मिला चौदह साल से अनशन पर हैं न सरकार उनकी सुवनवाई कर रही है और न देश उनके साथ है।


कानून के राज का करिश्मा यह है कि जल जंगल जमीन नागरिकता रोजगार से बेदखल जनता काभो न्याय लेकिन मिला नहीं है।


कानून के राज का करिश्मा यह है कि अभी अभी हाशिमपुरा नरसंहार कांड जिसमें सिर्फ पीएसी नहीं,सेना कीभी भारी भूमिका है, टाय टाय फिस्स है।


कानून के राज का करिश्मा यह है कि अभी अभी चिटफंड घोटालों और भर्ष्टाचार के तमाम मामलों ,कालाधन किस्सो की क्षत्रपसाधो संसदीय सहमति की राजनीति भी हम देख रहे हैं।


इसलिए निवेदन है कि ज्यादा खुश होने की जरुरत नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट का नोटिस मिलने से ही लौह पुरुष के खिलाफ तमाम आरोप साबित हो जायेंगे और इस प्रकरण के तमाम लोग धर लिये जायेंगे,कृपया ऐसी उम्मीद न करें।


फासीवाद रोकना है तो बहुजनों को संबोधित करें और जाति उन्मूलन के एजंडे पर तुरंत बहस चालू करें,जो सबसे जरुरी है।


Make Jaihind MANDATORY.Latest demand


भगत सिंह को पीली पगड़ी किसने पहनाई? चमन लालरिटायर्ड प्रोफ़ेसर, जेएनयू, दिल्ली

Dear Harpal,
   This is blog link, where English translation of the same is posted.





Dear Friends,
This is my blog-bhagatsinghstudy post being shared as a group mail. I apologize in advance to those friends, who may not like to receive such group mails and I request them to pl. drop a line of their unwillingness to receive such mails, so that I can take their name/names out of group list. Your responses are as much welcome.
Regards
Chaman Lal

भगत सिंह को पीली पगड़ी किसने पहनाई?
चमन लालरिटायर्ड प्रोफ़ेसरजेएनयूदिल्ली
·         29 मार्च 2015
मेरे पास भगत सिंह से जुड़ी 200 से ज़्यादा तस्वीरें हैं. इनमें उनकी प्रतिमाओं के अलावा किताबों और पत्रिकाओं में छपी और दफ़्तर वगैरह में लगी तस्वीरें शामिल हैं. ये तस्वीरें भारत के अलग अलग कोनों के अलावा मारिशसफिजी,अमरीका और कनाडा जैसे देशों से ली गई हैं.
इनमें से ज़्यादा तस्वीरें भगत सिंह की इंग्लिश हैट वाली चर्चित तस्वीर हैजिसे फ़ोटोग्राफ़र शाम लाल ने दिल्ली के कश्मीरी गेट पर तीन अप्रैल, 1929 को खींची थी. इस बारे में शाम लाल का बयान लाहौर षडयंत्र मामले की अदालती कार्यवाही में दर्ज है.
लेकिन पिछले कुछ वर्षों से मीडियाखासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भगत सिंह की वास्तविक तस्वीरों को बिगाड़ने की मानो होड़ सी मच गई है. मीडिया में बार-बार भगत सिंह को किस अनजान चित्रकार की बनाई पीली पगड़ी वाली तस्वीर में दिखाया जा रहा है.
पढ़ें लेख विस्तार से
भगत सिंह (बाएँ से दाएँ)11 साल, 16 साल, 20 साल और क़रीब 22 साल की उम्र की तस्वीरें. (सभी तस्वीरें चमन लाल ने उपलब्ध कराई हैं.)
भगत सिंह की अब तक ज्ञात चार वास्तविक तस्वीरें ही उपलब्ध हैं.
पहली तस्वीर 11 साल की उम्र में घर पर सफ़ेद कपड़ों में खिंचाई गई थी.
दूसरी तस्वीर तब की है जब भगत सिंह क़रीब 16 साल के थे. इस तस्वीर में लाहौर के नेशनल कॉलेज के ड्रामा ग्रुप के सदस्य के रूप में भगत सिंह सफ़ेद पगड़ी और कुर्ता-पायजामा पहने हुए दिख रहे हैं.
तीसरी तस्वीर 1927 की हैजब भगत सिंह की उम्र क़रीब 20 साल थी. तस्वीर में भगत सिंह बिना पगड़ी के खुले बालों के साथ चारपाई पर बैठे हुए हैं और सादा कपड़ों में एक पुलिस अधिकारी उनसे पूछताछ कर रहा है.
चौथी और आखिरी इंग्लिश हैट वाली तस्वीर दिल्ली में ली गई है तब भगत सिंह की उम्र 22 साल से थोड़ी ही कम थी.
इनके अलावा भगत सिंह के परिवारकोर्टजेल या सरकारी दस्तावेज़ों से उनकी कोई अन्य तस्वीर नहीं मिली है.
आखिर क्यों?
वाईबी चव्हाणभगत सिंह की प्रतिमा का शिलान्यास करते हुए. (तस्वीर चमन लाल ने उपलब्ध करवाई है.)
आख़िरकारभगत सिंह की काल्पनिक और बिगाड़ी हुई तस्वीर इलेक्ट्रानिक मीडिया में वायरल कैसे हो गई?
1970 के दशक तक देश हो या विदेशभगत सिंह की हैट वाली तस्वीर ही सबसे अधिक लोकप्रिय थी. सत्तर के दशक में भगत सिंह की तस्वीरों को बदलने सिलसिला शुरू हुआ.
भगत सिंह जैसे धर्मनिरपेक्ष शख्स के असली चेहरे को इस तरह प्रदर्शित करने के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार पंजाब सरकार और पंजाब के कुछ गुट हैं.
23 मार्च, 1965 को भारत के तत्कालीन गृहमंत्री वाईबी चव्हाण ने पंजाब के फ़िरोजपुर के पास हुसैनीवाला में भगत सिंहसुखदेव और राजगुरु के स्मारक की बुनियाद रखी. अब यह स्मारक ज़्यादातर राजनेताओं और पार्टियों के सालाना रस्मी दौरों का केंद्र बन गई है.
विचारों से दूरी
दरअसल भारत की सत्ताधारी पार्टियाँ भगत सिंह की बदली हुई तस्वीरों के साथ उन्हें एक प्रतिमा में बदलकर उसके नीचे उनके क्रांतिकारी विचारों को दबा देना चाहती हैंताकि देश के युवा और आम लोगों से उनसे दूर रखा जा सके.
ब्रिटेन में रहने वाले पंजाबी कवि अमरजीत चंदन ने वो तस्वीर शाया की है,जिसमें 1973 में खटकर कलाँ में पंजाब के उस समय के मुख्यमंत्री और बाद में भारत के राष्ट्रपति बने ज्ञानी जैल सिंह भगत सिंह की हैट वाली प्रतिमा पर माला डाल रहे हैं. भगत सिंह के छोटे भाई कुलतार सिंह भी उस तस्वीर में हैं.
भारत के केंद्रीय मंत्री रहे एमएस गिल बड़े ही गर्व के साथ कहते सुने गए हैं कि उन्होंने ही प्रतिमा में पगड़ी और कड़ा जोड़ा था. यह समाजवादी क्रांतिकारी नास्तिक भगत सिंह को 'सिख नायकके रूप में पेश करने की कोशिश थी.
क्रांतिकारी छवि
भगत सिंह के क्रांतिकारी लेख 1924 से ही विभिन्न अख़बारोंपत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. इस समय उनके लेख किताबोंपुस्तिकाओंपर्चों वगैरह के रूप में छप रहे हैंजिनसे इस नायक की क्रांतिकारी छवि उभर कर सामने आती है.
अस्सी के दशक तक भगत सिंह का लेखन हिंदीपंजाबी और अंग्रेजी में छप चुका थाजिसकी भूमिका बिपिन चंद्रा जैसे प्रसिद्ध इतिहासकार ने लिखी थी.
उनके लेखन से यह प्रमाणित हो गया कि वो एक समाजवादी और मार्क्सवादी विचारक थे. इससे भारत के कट्टरपंथी दक्षिणपंथी धार्मिक समूहों के कान खड़े हो गए.
मीडिया की साज़िश?
भगत सिंह को बहादुर और देशभक्त बताने के लिए उन्हें पीली पगड़ी में दिखाना ज्यादा आसान समझा गया.
यह उग्र मीडिया प्रचार के जरिए भगत सिंह की बदली गई छवि के ज़रिए एक अंतरराष्ट्रीय क्रांतिकारी विचारक के मुक्तिकामी विचारों को दबाने की साज़िश है.
(चमन लाल जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालयदिल्ली के सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर हैं. उन्होंने भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेजों का संपादन किया है. वो हिन्दीपंजाबी और अंग्रेजी में भगत सिंह पर किताबें लिख चुके हैं जिनका उर्दूमराठी और बांग्ला इत्यादि में अनुवाद हो चुका है.)
 

Pursue Appeal in Babri Masjid Case

Press Statement



The Polit Bureau of the Communist Party of India (Marxist) has issued the
following statement:



Pursue Appeal in Babri Masjid Case





The appeal against the Allahabad High Court verdict acquitting top BJP and
VHP leaders of criminal conspiracy in the demolition of the Babri Masjid is
pending before the Supreme Court.  The CBI had made the appeal nine months
after the High Court verdict of May 2010.  The CBI has been lax in pursuing
the matter in the Supreme Court.



The Polit Bureau of the CPI(M) demands that the CBI pursue the appeal
vigorously in the Supreme Court and not be influenced by extraneous
considerations given the fact that top leaders of the ruling party are
involved in the case.




Hem Mishra brutally beaten on Nagpur Central Prison premises by Nagpur Police.

Hem Mishra brutally beaten on Nagpur Central Prison premises by Nagpur Police.

Hem Mishra, Maroti Kurvatkar, and G Naga Saibaba demand strict action against guilty police personnel.
(Below is the English Translation of a Press Note issued in Marathi by Hem Mishra, Maroti Kurvatkar and G.N. Saibaba)
PRESS NOTE
POLICE BEAT UP PRISONER ON PRISON PREMISES
THE CASE OF POLITICAL PRISONER, JNU STUDENT, HEM MISHRA
The Nagpur police abused and beat up Hem Keshavdutt Mishra, student ofDelhi's Jawaharlal Nehru University and  presently lodged in Nagpur Central Prison over the issue of applying handcuffs. They attacked him cruelly and injured him.
This illegal and inhuman act of the police occurred just outside the prison gate within the prison premises on 20-03-2015 at around 10-00 a.m. when Hem Mishra was being taken for medical treatment to the Government Medical Hospital.
The Supreme Court has long ago ordered that handcuffs should not be applied and ropes should not be tied to prisoners being taken from prison to court or hospital. This provision has also been incorporated in the Criminal Manual and theJail Manual. Besides, the Assistant Inspector General of Police (Law and Order), Office of the Director General of Police has also issued a circular in this regard.
As per this, the police have been given clear orders not to apply handcuffs or tie ropes to prisoners being taken from the prison to the court or hospital. In case, in an exceptional circumstance, there is a need to apply handcuffs or tie ropes then it is necessary to take the permission of the concerned court. But the Maharashtra police are openly violating the orders of the Supreme Court.
On 20-03-2015, when undertrial prisoner Hem Mishra was being taken to the Government Medical Hospital for medical treatment he informed the police of these orders of the Supreme Court. But the police without bothering tried to forcibly apply handcuffs. When he again tried to explain to them, the police abused him and beat him up. Further, they cruelly attacked him and injured him. They tore his clothes and also threatened to "see" him.
These acts of the police are unconstitutional and illegal. They are also a violation of the orders of the Supreme Court. The victim has therefore sent a complaint to the Dhantoli Police Station through the Prison Superintendent calling for registration of an offence against the concerned guilty persons in this case and for their arrest. A complaint regarding this incident has also been made to the concerned court, the Principal Judge, Gadchiroli Sessions Court.
Hem Mishra, G.N. Saibaba, Maroti Kurvatkar, have vide Press Release demanded that strict action should be taken against the guilty in this case.

Yours faithfully,
1) Hem Mishra -sd-
2) Maroti Kurvatkar -sd-

Monday, March 30, 2015

भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ और भूमि अधिकार के लिए आन्दोलन की रणनीति बैठक - 10:30 से 3:30 बजे

आमंत्रण

भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ और भूमि अधिकार के लिए आन्दोलन की रणनीति बैठ - 10:30 से 3:30 बजे

 

राजनैतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों के साथ बैठक - 4 से 6 बजे

 

2 अप्रैल, डिप्टी स्पीकर हॉलकंस्टीट्यूशन क्लबदिल्ली

 

साथियों,


वर्ष 2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करके मोदी की अगुवाई वाली वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाया गया जो अब लोक सभा में पास होकर भूमि अधिग्रहण बिल का रूप ले चूका है. अध्यादेश के अस्तित्व में आने से लेकर आज तक देश की जनता इसके विरोध में आन्दोलन कर रही है. यह बिल सरकार को देश के किसानों से बिना उनके अनुमति के ज़मीनें छीनकर कम्पनियों को देने की ताकत प्रदान करता है. केवल ज़मीन ही नही बल्कि सरकार देश का पानीदेश की बिजलीदेश के खनिज संपदा और देश की जनता का श्रम सबकुछ कंपनियों को सस्ते में उपलब्ध कराने की जुगत में है ताकि उनके (कंपनियों) के लिए कम लागत विनिर्माण (Low Cost Manufacturing) की गारंटी हो सके तथा वे इस देश में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमा सकें. इसे ही देश की वर्तमान सरकार तेज गति से विकास बता रही है और प्रधान मंत्री मेक इन इंडिया का नाम दे रहे हैजिस मेक इन इंडिया की दुनिया में श्रम कानून लागू नही होंगे और मजदूरों पर कंपनियों का पूर्ण नियंत्रण होगा. दुसरे शब्दों में भारत में संविधान का राज नही होगा बल्कि कंपनीयों का राज होगाजो देश की जनता के लिए गुलामी के एक नए दौर की शुरुआत होगी.  

 

देश की जनता शाशकों के जन विरोधी और कॉर्पोरेटपरस्त मंशा को पहचानने लगीयही कारण है कि अध्यादेश के अस्तित्व में आने से लेकर आज तक भारत की जनता भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ देश के सभी हिस्सों में लगातार सड़कों पर प्रतिरोध आन्दोलन कर रही है. इस मुद्दे पर जनता के जुझारू प्रतिवाद ने संसद के विपक्षी पार्टियों को भूमि अधिग्रहण बिल का विरोध करने के लिए बाध्य कर दिया हैऔर बीते 17 मार्च को संसद में विपक्ष के सांसदों में ने साथ मिलकर के भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ संसद से लेकर राष्ट्रपति भवन तक मार्च भी किया है. विपक्षी पार्टियों द्वारा किये जा रहे विरोध के कारण ही सरकार इस बिल को राज्य सभा में लाने का सहस नही दिखा पा रही है.

 

इस अध्यादेश ने भूमि के प्रश्न को एक बार फिर भारतीय राजनीति के केंद्र में ला दिया है. देश की जनता भूमि अधिग्रहण बिल को रद्द करवाने की मांग के साथ-साथ भूमिहीनों के लिए भू अधिकार की मांग को भी प्रमुखता से उठा रही है. भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को रद्द करने की मांग पर देश भर के जनांदोलनों और ट्रेड यूनियनों ने मिल कर अध्यादेश के विरोध में 24 फ़रवरी को संसद मार्ग पर विशाल रैली आयोजित की थी जिसकी धमक संसद में भी सुनाई पड़ी और सरकार को अध्यादेश में कुछ बदलाव का ड्रामा भी करना पड़ा था.

 

वर्तमान में भूमि अधिग्रहण बिल को रद्द करवाने और भूमिहीनों के लिए भू-अधिकार सुनिश्चित करने के लिए पुरे देश में जन प्रतिरोध खड़ा हो रहा है और जगह-जगह से जुझारू प्रतिवादों और आन्दोलन की ख़बरें आ रही हैं. पुरे भारत में जन संगठन और ट्रेड यूनियन अपने-अपने इलाकों में आन्दोलन को और अधिक तीखा करने के लिए लोगों के सामने बिल के जन विरोधी चरित्र को रखते हुए हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैंतथा पुरे देश में जगह-जगह शहीदी दिवस (23 मार्च) को भू-अधिकार दिवस के रूप में मनाया गया है. भूमि अधिग्रहण बिल रद्द हो यह आन्दोलनों की फौरी मांग है लेकिन भू-अधिकार और विशेष तौर पर भूमिहीनों के लिए भू-अधिकार के मुद्दे को भूमि अधिग्रहण बिल विरोधी आन्दोलन के केंद्र में रखा गया हैऔर यह आन्दोलन अध्यादेश रद्द हो जाने के बाद भी भू-अधिकार के प्रश्न पर आगे भी जारी रहेगा. आने वाले दिनों में भूमि अधिकार और श्रम अधिकारों के सवाल पर'भूमि अधिग्रहण नहीभू-अधिकार चाहिएनारे के साथ जन संगठनों और ट्रेड यूनियनों के संयुक्त नेतृत्व में जन अभियान चलेगा.   

 

भूमि अधिग्रहण बिल को रद्द करवाने और सबके लिए और खास कर भूमिहीनों के लिए भू-अधिकार की लड़ाई को आगे बढ़ाने हेतु व्यापक और दूरगामी रणनीति तैयार करने के हेतु विचार विमर्श करने के लिए 2 अप्रैल 2015 को एक सम्मलेन आयोजित किया गाया है और उसी दिन सायं 4-6 बजे तक राजनितिक पार्टी के प्रतिनिधियों/सांसदों के साथ भी इस मुद्दे पर मीटिंग आयोजित होगी. जिसमे भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध में संघर्ष करने वाले सभी संगठनों के प्रतिनिधि सादर आमंत्रित हैं. मीटिंग में मेधा पाटकर, अशोक चौधरी, हन्नान मौला, अतुल अंजान, डॉ सुनीलम, राकेश रफीक, भूपेन्द्र सिंह रावत एवं अन्य साथी शामिल होंगे.

 

रोमा, संजीव, मधुरेश, श्वेता, कृष्णा प्रसाद, वीजू कृष्णन, प्रताप, सत्यम, मीरा, रागीव

 समन्वय समिति की ओर से  (For Coordinating Committee)

 

Contact : 9818905316, 9958797409, 9911528696

 













-- 
Ms. Roma ( Adv)
Dy. Gen Sec, All India Union of Forest Working People(AIUFWP) /
Secretary, New Trade Union Initiative (NTUI)
Coordinator, Human Rights Law Center
c/o Sh. Vinod Kesari, Near Sarita Printing Press,
Tagore Nagar
Robertsganj, 
District Sonbhadra 231216
Uttar Pradesh
Tel : 91-9415233583, 
Email : romasnb@gmail.com
http://jansangarsh.blogspot.com

Delhi off - C/o NTUI, B-137, Dayanand Colony, Lajpat Nr. Phase 4, NewDelhi - 110024, Ph - 011-26214538




-- 

All India Union of Forest Working People AIUFWP
11 Mangal Nagar,
Saharanpur, U.P.247001
Mobile> 09410418901,09868857723




-- 
Ms. Roma ( Adv)
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Attacking the Cross: Rise in Anti Christian Violence Ram Puniyani

Attacking the Cross: Rise in Anti Christian Violence
 
Ram Puniyani
 
 
Julio Ribeiro is one of the best known police officers in India. Recently (March 16, 2015) he wrote in his article that he is feeling like a stranger in this country. 'I feel threatened, not wanted, reduced to a stranger in my own country'. This pain and anguish of a distinguished citizen, an outstanding police officer has to be seen against the backdrop of the rising attacks on Churches and rape of the 71 year old nun in Kolkata. All over the country the rage amongst the Christian community is there to be seen in the form of silent marches, candle light vigils and peaceful protests. 

As such during the last several months in particular the instances of attacks, and intimidation of the minority community has become more frightening. There is also a noticeable change in the pattern of violence against them. Earlier these attacks were more in the remote Adivasi areas, now one can see this taking place in urban areas also. The change in frequency of these attacks after the new Government took over is a striking phenomenon. 

As such Christians are one of the very old communities in India. Right from the first century when St. Thomas visited Malabar Coast in Kerala and set up a Church there the Christian community has been here, part of the society, contributing to various aspects of social life. The missionaries, the nuns and priests, have also spent ages in the rural hinterlands setting up educational and health facilities and have also founded the most reputed educational institutions in most of the major cities of the country. Christians today are a tiny minority (2.3% as per 2001 census). It has been a community which like any other has its own internal diversity with various Christian denominations. 

In this context the rise of anti Christian violence during last few decades in Adivasi areas, Dangs (Gujarat) Jhabua (MP) Kandhamal (Orissa) has been an unnerving experience for the community as a whole and for those believing in pluralism and diversity of the country in particular. The violence which picked up from mid nineties peaked in the burning alive of Pastor Graham Stains (23rd Jan 1999) and later Kandhamal violence in 2007 and 2008. After this there was a sort of low intensity scattered violence in remote areas, till the attack on Churches in Delhi from last several months. The Churches which were attacked were scattered in five corners of Delhi, Dilshad Garden (East), Jasola (South West), Rohini (Outer Delhi), Vikaspuri (West) and Vasant kunj (South), as if by design the whole terrain of Delhi was to be covered for polarization. It was claimed by police and state that the main cause of these has been theft etc.; in the face of the fact at most of the places the donation boxes remained intact. BJP spokesperson are vociferously giving the data that during this period so many temples have also been attacked, which is a mere putting the wool in the eye, as the targeted nature of anti Christian violence is very glaring. 

In the meanwhile the RSS Sarsanghachalak, the boss of the Hindu right, to which BJP owes its allegiance, states that Mother Teresa was doing the charity work with intent to conversion. Post the statement two major incidents have come to light. One is in Hisar in Harayana, where a church has been attacked, it's Cross replaced by the idol of Lord Hanuman and the Chief Minister of Haryana, who again has RSS background, stated that the Pastor of the Church has been alleged to be part of the conversion activities. At the same time RSS progeny Vishwa Hindu Parishad stated that more such acts of attack on churches will take place if conversions are not stopped. This incident reminds one of the placing of the idols of Ram Lalla (Baby Ram) in Babri Mosque in 1949 and then claiming that it was a birth place of Lord Ram. In addition the statement of the Chief Minister gives a clear indication as to how the investigation of the incident will take place and whether the real culprits will ever be nabbed. Incidentally there are no police complaints about Pastors' conversion activities if any, in the police records. This 'they are doing conversions' is a standard ploy which is propagated for anti Christian violence, which one has witnessed so far. 

After Bhagwat's comments on Mother Teresa the anti Christian violence seems to be intensifying by the day and the incidence of Haryana and Kolkata are symbols of that and VHP is openly talking of more attacks. When Prime Minister Modi broke his deliberate silence on the issues of violence against minorities, he did say that religious freedom will be respected. But one also knows that what he says and what he means are mostly not the same. Also that now the silence of last several months has given a clear message to his associates in RSS combines that they can carry on their disruptive and polarizing activities at will. A large section within the Christian community feel that Modi was voted on the agenda of development and this type of violence was not anticipated! That is a sheer naivety, Modi is a RSS trained Pracharak, for whom the divisive agenda remains at the core, to be implemented by a clever 'division of labor' implemented through different organizations, which are part of RSS combine popularly known as Sangh Parivar. 

As such India has been the cradle of many religions, which celebrated and lived together, a far cry from the present atmosphere which is intimidating the minorities. Christian's plight in recent times is something to which the concerned democratic rights individuals need to wake up to. This seems to be unfolding of the script, Pehle Kasai Phir Isai, (First Muslim, then Christians). It is not just a violation of their rights; it's also a violation of very basic norm of democracy. As they say, a democracy has to be judged by the litmus test of level of security and equity its minorities enjoy!

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Response only to ram.puniyani@gmail.com