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Thursday, October 20, 2011

संघ की सियासी कवायद

पुण्य प्रसून वाजपेयी
जनसत्ता, 20 अक्तूबर, 2011 : जिस वक्त अण्णा हजारे रालेगण सिद्धी में राजनीतिक लकीर खींच रहे थे उसी वक्त नागपुर में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत अण्णा की सफलता के पीछे संघ के स्वयंसेवकों की सक्रियता बता रहे थे। जिस वक्त विदर्भ के एक किसान की विधवा 'कौन बनेगा करोड़पति' में शामिल होने के बाद अपनी नई पहचान को समेटे सोनिया गांधी को पत्र लिख कर अपने जीने के हक का सवाल खड़ा कर रही थी उसी वक्त भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी दिल्ली में विदर्भ की चकाचौंध बताते हुए विकास के पथ पर चलने के गीत गा रहे थे। तो क्या आरएसएस अपना महत्त्व बताने के लिए कहीं भी खुद को खड़ा करने की स्थिति में है और सत्ता पाने के लिए भाजपा किसी भी स्तर पर अपनी चकाचौंध दिखाने के लिए तैयार है?
यानी एक तरफ आरएसएस को यह स्वीकार करने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है कि उसकी धार कुंद हो चली है और वह अण्णा के पीछे खड़े होकर संघ परिवार को उनके आंदोलन से जोड़ सकता है। वहीं दूसरी तरफ भाजपा इस सुरूर में है कि सत्ता के खिलाफ जनता के आक्रोश में अपनी गाथा अपने तरीके से गाते रहना होगा। एक तरफ अण्णा अगर राजनीतिक रास्ता भी पकडेÞं तो संघ को यह स्वीकार्य है और विदर्भ से ही आने वाले नितिन गडकरी अगर विदर्भ का सच दिल्ली में छिपा कर बताएं तो भी चलेगा। दोनों घटनाओं के मर्म को पकडेÞं तो पहली बार यह हकीकत भी उभरेगी कि लगातार सामाजिक मुद्दों पर हारता संघ परिवार किसी भी तरह अपनी सफलता दिखाने-बताने को बैचेन है, तो दूसरी तरफ भाजपा के भीतर नेताओं की आपसी कशमकश है, जो अपना-अपना कद बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।
पहले आरएसएस की बात। मोहन भागवत में स्वयंसेवक बार-बार हेडगेवार की छवि देखना चाहते हैं। लेकिन हेडगेवार ने कभी किसी दूसरे के संघर्ष को मान्यता नहीं दी। जब आरएसएस संघर्ष के दौर में था, हेडगेवार से होते हुए गुरु गोलवलकर के जरिए सामाजिक तौर पर अपनी पहचान बना रहा था। इसी दौर में आरएसएस हिंदू महासभा से टकराया। हेडगेवार के सामने जब-जब सावरकर आकर खडेÞ हुए तब-तब संघ ने सावरकर को खारिज किया।
उस दौर में भी आरएसएस को सामाजिक शुद्धीकरण के संघर्ष से जोड़ कर हेडगेवार ने यह सवाल उठाया कि राजनीतिक रास्ता सफलता का रास्ता नहीं है। वहीं सावरकर लगातार सामाजिक मुद््दों के सहारे राजनीतिक तौर-तरीकों पर जोर देते रहे, और हिंदुत्व के सहारे राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने की दिशा में कदम बढ़ाते रहे। लेकिन न तो हेडगेवार इसके लिए कभी तैयार हुए न ही गुरु गोलवलकर।
इतना ही नहीं, श्यामाप्रसाद मुखर्जी जब नेहरू सरकार से इस्तीफा देकर गुरु गोलवलकर से मिलने पहुंचे तो दोनों के बीच पहला संवाद सामाजिक शुद्धीकरण और राष्ट्रवादी राजनीति को लेकर ही हुआ। इसके बाद 1951 में राष्ट्रवादी राजनीति के नाम पर जनसंघ तो बना, लेकिन राजनीति करने वाले स्वयसेवकों को यही पाठ पढ़ाया गया कि सत्ता समाज के शुद्धीकरण से ही बनेगी, और हर लकीर खुद स्वयंसेवकों को खींचनी होगी।
यानी आरएसएस या जनसंघ ने उस वक्त भी कांग्रेस के 'नरम हिंदुत्व' या सेक्युलर राष्ट्रवादी समझ को मान्यता नहीं दी। अब यहां सवाल संघ के मुखिया मोहन भागवत को लेकर खड़ा होता है कि जिस दशहरे की सभा का इंतजार स्वयंसेवक साल भर करते हैं उस सभा में दिए अपने भाषण में जब वे आरएसएस की सफलता दिखाने के लिए अण्णा हजारे के आंदोलन का श्रेय लेने की कोशिश करते हैं तो फिर यह रास्ता जाएगा किधर?
संघ के भीतर बीते पचासी सालों से मान्यता बनी हुई है कि दशहरे के दिन संघ के मुखिया अक्सर आने वाले दौर का रास्ता ही स्वयंसेवकों को दिखाते हैं। हिंदुत्व की बिसात पर सामाजिक शुद्धीकरण की वह चाल चलते हैं जिससे राष्ट्रवाद जागे। मोहन भागवत के उपर्युक्त भाषणों को लेकर सवाल इसलिए भी उठता है कि जिस दौर में जेपी के पीछे खड़े होकर आरएसएस देश में राजनीतिक सत्ता पलटने की कवायद कर रहा था उस दौर में भी दशहरे के दिन तब के संघ के मुखिया गोलवलकर ने कभी जेपी संघर्ष में शामिल स्वयंसेवकों की बाबत एक वाक्य भी नहीं कहा था।
ऐसे में अण्णा के आंदोलन की सफलता के पीछे अगर स्वयंसेवकों का ही संघर्ष हो तो भी उसे इस तरह बताने का मतलब है कि संघ के मुखिया भागवत की राजनीतिक चेतना कमजोर है। या फिर कमजोर होते संघ परिवार में आरएसएस अपनी जरूरत को बनाए रखने में जुटा हुआ है। या फिर आरएसएस के भीतर के तौर-तरीके इतने लुंज-पुंज हो गए हैं कि उसे एक आधार चाहिए जो उसे मान्यता दिलाए। या, सरकार जिस तरह आरएसएस को आतंक के कठघरे में खड़ा करने की कोशिश रही है उससे बचने के लिए आरएसएस राजनीतिक सत्ता को डिगाने में लगे अण्णा आंदोलन में ही घुस कर अपनी


पूंछ बचाना चाहता है।
दरअसल, इस सवाल का जवाब भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के तौर-तरीकों में भी छिपा है। देश में विदर्भ की पहचान सबसे त्रासदक्षेत्र की है, जहां बीते दस बरस में सवा लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
मगर अण्णा के आंदोलन से जब भाजपा को यह समझ में आया कि देश के आम लोगों में सरकार के कामकाज के तरीकों को लेकर आक्रोश है तो नरेंद्र मोदी ने तीन दिन का उपवास कर अपना कद बढ़ाना चाहा। आडवाणी ने रथयात्रा शुरू कर बढ़त लेनी चाही। और इसी मौके पर गडकरी ने भी अपने भाषणों के संकलन 'विकास के पथ पर...' के जरिए खुद   का कद बढ़ाने की मशक्कत शुरू की। दिल्ली के सीरी फोर्ट में किताब के लोकार्पण के मौके पर गडकरी ने संयोग से विदर्भ के उन्हीं जिलों में अपने कामकाज के जरिए विकास की लकीर खींचने का दावा किया, जिन जिलों में सबसे ज्यादा बदहाली है। वहां के आदिवासियों को लेकर बनी बीस मिनट की फिल्म में हर जगह विकास संबंधी गडकरी का सोच था या फिर खुश-खुश चेहरे।
लेकिन संयोग से आठ अक्तूबर को, जब विदर्भ के संबंध में यह फिल्म दिखाई जा रही थी, उसी दिन विदर्भ के ही एक किसान की विधवा अपर्णा मल्लीकर की चिट्ठी 10 जनपथ पर पहुंची। इस पत्र में अपर्णा मल्लीकर ने अपने पति संजय की खुदकुशी के बाद अपने जीने के हक और अपनी दोनों बेटियों के लिए निरापद भविष्य मांगा था।
जिस बेबसी में अपर्णा रह रही है उसमें पति की खुदकुशी के बाद राहत-राशि और 'कौन बनेगा करोड़पति' से जीती छह लाख चालीस हजार की रकम बचाने में ही उसकी जान पर बन आई है। पैसे हड़पने में अपर्णा की जान के पीछे और कोई नहीं, उसके अपने रिश्तेदार और दिवंगत पति के बडेÞ भाई रघुनाथ मल्लीकर पडेÞ हैं जो कांग्रेस के नेता हैं और नागपुर के डिप्टी मेयर रह चुके हैं। इसलिए अपर्णा के लिए जीने के रास्ते बंद होते जा रहे हैं। विदर्भ में दयनीय हालत के बीच भाजपा अपनी विकास गाथा गा रही है तो कांग्रेस के स्थानीय नेता किसानों के पैकेज में अपना लाभ खोज रहे हैं। कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों को किसानों की सुध तभी आती है जब उन्हें कोई सियासी फायदा हो।
यह खेल कलावती के जरिए विदर्भ के यवतमाल ने पहले ही देखा है, जिसका जिक्र राहुल गांधी ने संसद में दिए अपने एक भाषण में किया था। लेकिन विरोध की राजनीति करती भाजपा का रुख भी जब किसानों के दर्द से इतर अपनी चकाचौंध में लिपट जाए और विदर्भ के केंद्र नागपुर से खड़ा आरएसएस भी जब रालेगण सिद्धी से निकले अण्णा हजारे के पीछे चलने को मजबूर हो, तब यह कहना कहां तक सही होगा कि देश का सबसे बड़ा 'परिवार' देश को रास्ता दिखा सकता है।
अण्णा हजारे के आंदोलन के बाद से जहां भाजपा के भीतर सत्ता पाने की बेचैनी दिख रही है वहीं आरएसएस भी अपनी बिसात बिछा रहा है। संघ को यह जरूरी लगने लगा है कि इस बार सत्ता उन्हीं स्वयंसेवकों के हाथ में आए जो संघ परिवार का विस्तार करें। यानी भाजपा के भीतर के कथित उदार चेहरे और नरेंद्र मोदी सरीखे तानाशाह उसे मंजूर नहीं हैं। क्योंकि 1998 से 2004 के दौर में संघ के स्वयंसेवकों ने सत्ता जरूर भोगी, लेकिन आरएसएस उस दौर में हाशिए पर ही रहा। और गुजरात में नरेंद्र मोदी चाहे मौलाना टोपी न पहन कर संघ को खुश करना चाहते हों, लेकिन अंदरूनी सच यही है कि मोदी ने गुजरात से आरएसएस का ही सूपड़ा साफ कर दिया है, खासकर मराठी स्वयंवकों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। प्रांत प्रचारकों में सिर्फ गुजराती बचे हैं जो मोदी के इशारों पर चलने को मजबूर हैं।
मधुभाई कुलकर्णी हों या मनमोहन वैद्य सरीखे पुरानी पीढ़ी से जुडेÞ स्वयंसेवक, सभी को गुजरात से बाहर का रास्ता अपनी सोची-समझी रणनीति के तहत ही नरेंद्र मोदी ने दिखाया। इससे पहले संजय जोशी के साथ भी मोदी ने यही किया था। वहीं दूसरी तरफ भाजपा के भीतर जिस तरह बड़ा नेता बनने के लिए संघ से दूरी बना कर सियासत करने की समझ केंद्रीय नेतृत्व में दिखाई देती  है उसे लेकर भी आरएसएस सतर्क है। और इसीलिए आरएसएस अब अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक छवि को तोड़ते हुए राजनीतिक तौर पर करवट लेते देश में अपनी भूमिका को राजनीतिक तौर पर रखने से भी कतरा नहीं रहा है।
लिहाजा, अब सवाल यह नहीं है कि आडवाणी की रथयात्रा के बाद भाजपा के भीतर उनकी स्थिति क्या बनेगी। बल्कि सवाल यह है कि क्या इस दौर में आरएसएस अण्णा से लेकर भाजपा की राजनीतिक पहल को भी अपने तरीके से इसलिए चलाना शुरू कर देगा ताकि कांग्रेस के विकल्प के तौर पर संघ का सोच उभरे, और भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई तक तमाम मुद््दों पर हांफता संघ परिवार आने वाले दौर में एकजुट होकर संघर्ष करता नजर आए।

 

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