पुण्य प्रसून वाजपेयी दरअसल, इस सवाल का जवाब भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के तौर-तरीकों में भी छिपा है। देश में विदर्भ की पहचान सबसे त्रासदक्षेत्र की है, जहां बीते दस बरस में सवा लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। मगर अण्णा के आंदोलन से जब भाजपा को यह समझ में आया कि देश के आम लोगों में सरकार के कामकाज के तरीकों को लेकर आक्रोश है तो नरेंद्र मोदी ने तीन दिन का उपवास कर अपना कद बढ़ाना चाहा। आडवाणी ने रथयात्रा शुरू कर बढ़त लेनी चाही। और इसी मौके पर गडकरी ने भी अपने भाषणों के संकलन 'विकास के पथ पर...' के जरिए खुद का कद बढ़ाने की मशक्कत शुरू की। दिल्ली के सीरी फोर्ट में किताब के लोकार्पण के मौके पर गडकरी ने संयोग से विदर्भ के उन्हीं जिलों में अपने कामकाज के जरिए विकास की लकीर खींचने का दावा किया, जिन जिलों में सबसे ज्यादा बदहाली है। वहां के आदिवासियों को लेकर बनी बीस मिनट की फिल्म में हर जगह विकास संबंधी गडकरी का सोच था या फिर खुश-खुश चेहरे। लेकिन संयोग से आठ अक्तूबर को, जब विदर्भ के संबंध में यह फिल्म दिखाई जा रही थी, उसी दिन विदर्भ के ही एक किसान की विधवा अपर्णा मल्लीकर की चिट्ठी 10 जनपथ पर पहुंची। इस पत्र में अपर्णा मल्लीकर ने अपने पति संजय की खुदकुशी के बाद अपने जीने के हक और अपनी दोनों बेटियों के लिए निरापद भविष्य मांगा था। जिस बेबसी में अपर्णा रह रही है उसमें पति की खुदकुशी के बाद राहत-राशि और 'कौन बनेगा करोड़पति' से जीती छह लाख चालीस हजार की रकम बचाने में ही उसकी जान पर बन आई है। पैसे हड़पने में अपर्णा की जान के पीछे और कोई नहीं, उसके अपने रिश्तेदार और दिवंगत पति के बडेÞ भाई रघुनाथ मल्लीकर पडेÞ हैं जो कांग्रेस के नेता हैं और नागपुर के डिप्टी मेयर रह चुके हैं। इसलिए अपर्णा के लिए जीने के रास्ते बंद होते जा रहे हैं। विदर्भ में दयनीय हालत के बीच भाजपा अपनी विकास गाथा गा रही है तो कांग्रेस के स्थानीय नेता किसानों के पैकेज में अपना लाभ खोज रहे हैं। कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों को किसानों की सुध तभी आती है जब उन्हें कोई सियासी फायदा हो। यह खेल कलावती के जरिए विदर्भ के यवतमाल ने पहले ही देखा है, जिसका जिक्र राहुल गांधी ने संसद में दिए अपने एक भाषण में किया था। लेकिन विरोध की राजनीति करती भाजपा का रुख भी जब किसानों के दर्द से इतर अपनी चकाचौंध में लिपट जाए और विदर्भ के केंद्र नागपुर से खड़ा आरएसएस भी जब रालेगण सिद्धी से निकले अण्णा हजारे के पीछे चलने को मजबूर हो, तब यह कहना कहां तक सही होगा कि देश का सबसे बड़ा 'परिवार' देश को रास्ता दिखा सकता है। अण्णा हजारे के आंदोलन के बाद से जहां भाजपा के भीतर सत्ता पाने की बेचैनी दिख रही है वहीं आरएसएस भी अपनी बिसात बिछा रहा है। संघ को यह जरूरी लगने लगा है कि इस बार सत्ता उन्हीं स्वयंसेवकों के हाथ में आए जो संघ परिवार का विस्तार करें। यानी भाजपा के भीतर के कथित उदार चेहरे और नरेंद्र मोदी सरीखे तानाशाह उसे मंजूर नहीं हैं। क्योंकि 1998 से 2004 के दौर में संघ के स्वयंसेवकों ने सत्ता जरूर भोगी, लेकिन आरएसएस उस दौर में हाशिए पर ही रहा। और गुजरात में नरेंद्र मोदी चाहे मौलाना टोपी न पहन कर संघ को खुश करना चाहते हों, लेकिन अंदरूनी सच यही है कि मोदी ने गुजरात से आरएसएस का ही सूपड़ा साफ कर दिया है, खासकर मराठी स्वयंवकों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। प्रांत प्रचारकों में सिर्फ गुजराती बचे हैं जो मोदी के इशारों पर चलने को मजबूर हैं। मधुभाई कुलकर्णी हों या मनमोहन वैद्य सरीखे पुरानी पीढ़ी से जुडेÞ स्वयंसेवक, सभी को गुजरात से बाहर का रास्ता अपनी सोची-समझी रणनीति के तहत ही नरेंद्र मोदी ने दिखाया। इससे पहले संजय जोशी के साथ भी मोदी ने यही किया था। वहीं दूसरी तरफ भाजपा के भीतर जिस तरह बड़ा नेता बनने के लिए संघ से दूरी बना कर सियासत करने की समझ केंद्रीय नेतृत्व में दिखाई देती है उसे लेकर भी आरएसएस सतर्क है। और इसीलिए आरएसएस अब अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक छवि को तोड़ते हुए राजनीतिक तौर पर करवट लेते देश में अपनी भूमिका को राजनीतिक तौर पर रखने से भी कतरा नहीं रहा है। लिहाजा, अब सवाल यह नहीं है कि आडवाणी की रथयात्रा के बाद भाजपा के भीतर उनकी स्थिति क्या बनेगी। बल्कि सवाल यह है कि क्या इस दौर में आरएसएस अण्णा से लेकर भाजपा की राजनीतिक पहल को भी अपने तरीके से इसलिए चलाना शुरू कर देगा ताकि कांग्रेस के विकल्प के तौर पर संघ का सोच उभरे, और भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई तक तमाम मुद््दों पर हांफता संघ परिवार आने वाले दौर में एकजुट होकर संघर्ष करता नजर आए। |
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7 years ago
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