कुमार प्रशांत
जनसत्ता, 19 अक्तूबर, 2011 : अरब देशों में जो जनाक्रोश फूटा था और वर्षों से गद्दी पर बैठे कई तानाशाहनुमा शासकों को भूलुंठित कर गया था। उसके संदर्भ में हमें बताया गया था कि यह सब लोकतांत्रिक अधिकारों से लोगों को लंबे समय तक वंचित रखने का परिणाम है। पश्चिमी लोकतंत्र और उसके साथ गलबहियां डाल कर चलने वाले पूंजीवाद की पूरी कोशिश थी कि लोग इस जनाक्रोश की जड़ में न जाएं और उनका कहा मान लें कि इन सब का रिश्ता कहीं-न-कहीं इस्लामी दकियानूसीपन से है। कुछ ऐसा मान भी लिया गया। लेकिन अब देखिए कि ऐसा माहौल रचने वालों की अपनी दीवारें ही कांपने लगी हैं। और यह तब हो रहा है जब फ्रांस की राजधानी पेरिस में सारी दुनिया के आका मुल्कों के वित्तमंत्री जी-20 के नाम से जमा हुए और इस बारे में माथापच्ची करने में लगे कि कर्ज के दलदल में आकंठ डूबे और डूबते ही जा रहे यूरोदेशों की जान कैसे बचाई जा सकती है!
बात शुरू तब हुई जब इसी वर्ष मई में स्पेन की राजधानी मैड्रिड के प्रमुख चौराहे पर एक ऐसी रैली हुई जिसके पास करने और कहने के लिए कुछ खास नहीं था। गहरी निराशा और छूंछा-सा बदरंग गुस्सा था जो उस चौराहे पर उभरा और जैसे हवा के पंखों पर बैठ कर उड़ चला। वे नाराज और परेशान थे कि बेरोजगारी की फांस में उनकी गर्दन फंसती जा रही है और ऐशो-आराम की जिंदगी जीने में मशगूल मुट््ठी भर लोगों को इसकी कोई फिक्र ही नहीं है! यह बेबसी और चिढ़ का प्रदर्शन था। किसी ने कहा भी- इसमें ईर्ष्या भी है क्योंकि ये हमारी तरह संपन्न नहीं बन सके हैं! लेकिन यह किसी ने न देखा और न समझा कि मैड्रिड से उठा यह धुआं आसमान में पहुंचा और फिर सारे यूरोप में फैल गया।
अमेरिका में, आस्ट्रेलिया में, हांगकांग और जापान में लोग सड़कों पर उतर आए। वे सब अपने शहर के उन इलाकों की तरफ बढ़ते चले हैं जिधर उनका शेयर बाजार, बैंक या आर्थिक संस्थान हैं। अमेरिका से नारा उठा- आॅक्युपाई वॉल स्ट्रीट- वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो! जापान के टोकियो में निकली रैली तो सैकड़ा भर लोग ही थे, लेकिन आह्वान उनका भी यही था कि कब्जा करो टोकियो पर! हांगकांग में सड़कों पर उतरे पांच सौ से ज्यादा लोगों ने जो कहा उसका लब्बोलुआब यह था कि जैसी गैर-बराबरी हमारे देश में उभरती जा रही है और खुली अर्थव्यवस्था का जैसा क्रूर शोषण चल रहा है वह अब बर्दाश्त के बाहर है। सिडनी में छह सौ से ज्यादा लोग थे जो आस्ट्रेलिया के सेंट्रल बैंक के बाहर धरना लगा कर बैठे थे। वे कह रहे थे: तुम्हारी मौज और हमारी मौत!
यूरोप की आर्थिक राजधानी फ्रैंकफर्ट में पांच हजार से ज्यादा लोग वहां के यूरोपीयन सेंट्रल बैंक के सामने जमा हुए थे तो लंदन की रैली में पांच सौ से ज्यादा लोग थे जो सेंट पॉल कैथेड्रल से चल कर वहां के शेयर बाजार तक पहुंचे थे। उनके साथ विकीलीक्स के जूलियन असांजे भी थे और उन्होंने रैली को संबोधित भी किया।
नजारा दीवार की दूसरी तरफ भी कुछ अलग नहीं था। बोस्निया के साराजीवो में जो रैली निकली उसमें प्रदर्शनकारियों के पास एक तस्वीर भी थी और एक झंडा भी। तस्वीर चे गुएवेरा की थी और झंडा पुरानी पड़ गई कम्युनिस्ट पार्टी का था और नारा था- पूंजीवाद का अंत हो, जनता को मुक्ति मिले! फिलीपींस में सौ लोगों के जुलूस ने मनीला स्थित अमेरिकी दूतावास को घेरा और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाए। कनाडा के मांट्रियल, वेंकूवर और टोरंटो में प्रदर्शन हुए और सबका निशाना शेयर बाजार, बैंक आदि ही थे। इटली की राजधानी रोम में जमा हुए थे एक हजार से दो हजार के बीच प्रदर्शनकारी और वे हिंसक हो उठे। सारे इटली देश के कोई अस्सी स्थानों से, साढ़े सात सौ बसों में भर कर प्रदर्शनकारी आए थे।
सब एक ही बात कह रहे थे- कॉरपोरेटों का लोभ और सादगी-मितव्ययितता का उनका दिखावा सहने को हम तैयार नहीं हैं। शिकागो शहर में दो हजार हजार से अधिक प्रदर्शनकारियों ने रैली निकाली और रैली के बाद उनमें से कई शहर के एक पार्क में घुस गए और अपने टेंट आदि गाड़ कर बैठ गए। जब पार्क के बंद होने का वक्त आया तो वे वहां से निकलने को तैयार नहीं हुए। देर रात तक पुलिस और उनके बीच खींचतान चलती रही और फिर जाकर गिरफ्तारियां शुरू हुर्इं। न्यूयार्क में दो दर्जन से ज्यादा लोग सिटी बैंक की एक शाखा में जा घुसे और वहां से निकलने को तैयार नहीं हुए। पुलिस ने उन्हें जब तक गिरफ्तार नहीं किया, वे बैंक से शाखा बंद करने की मांग करते रहे। एक दूसरी बैंक-शाखा के पास पहुंच कर प्रदर्शनकारियों ने ढोल-झांझ आदि बजाए और कुछ ने शाखा में जाकर अपना बैंक खाता बंद भी किया। उन्होंने इस बात की सावधानी बरती कि बैंक में अपना काम कर रहे दूसरे ग्राहकों को कोई दिक्कत न हो।
बात इस आंदोलन से शुरू नहीं होती है। इस साल के शुरू में ही यूरोप के कई देशों में नौजवानों ने प्रदर्शन किया था और बार-बार एक ही सवाल पूछा था कि आपकी ऐयाशियों की कीमत हम अदा क्यों करें! नई पीढ़ी के सामने सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। नौकरियां हैं नहीं, मंदी के कारण स्वतंत्र व्यवसाय की संभावना भी धूमिल होती जा रही
सरकारें इस स्थिति का मुकाबला करने में खर्चों में कटौती करने, मितव्ययिता का रास्ता अपनाने, सादगी से काम करने आदि का नारा दे रही हैं। सेवानिवृत्ति की आयु-सीमा बढ़ाई जा रही है ताकि नई नियुक्तियां न करनी पडेंÞ, पुराने ही वेतनमान पर लोग काम करेंगे तो खर्च कम होगा, सेवा-क्षेत्र में कोई नई शुरुआत न की जाए ताकि खर्च का कोई नया कारण न बने, विकास की तथाकथित परियोजनाएं स्थगित कर दी जाएं ताकि सरकारी खर्च न बढेÞ। यह सब हो रहा है और सबका परिणाम एक ही आ रहा है कि नयों के लिए हर रास्ता बंद होता जा रहा है। अब वे पूछ रहे हैं कि आपने जीवन की, विकास की, कमाई की जो भी गलत नीतियां अपनार्इं और अनाप-शनाप खर्चे से जीवन चलाया उसका बोझ हम पर क्यों डाला जा रहा है- आपने जो किया उसका परिणाम आप भुगतिए! हमें रोजगार चाहिए, हमें अपने जीवन की खुशियां चाहिए। हम उससे समझौता नहीं करेंगे।
सारी दुनिया मंदी की चपेट में है। मंदी गहरी भी होती जा रही है और फैलती भी जा रही है। अब लोग पूछ रहे हैं कि यह कैसे हो रहा है कि मंदी की चपेट में आया हमारा जीवन तो घुटता जा रहा है और आपके जीवन का आसमान बड़ा-से-बड़ा होता जा रहा है। अमेरिका में दो नंबर का धंधा करके कंगाल हुई कंपनियों को सरकार हमारा ही पैसा खिला-खिला कर जीवनदान दे रही है लेकिन उनके बोनस, उनकी शानो-शौकत में कोई कमी नहीं आ रही है।
यूरोप के प्रदर्शनकारी जिसे कॉरपोरेट-लोभ कह रहे हैं वह यही तो है! सरकार भी लोगों को अंतिम हद तक निचोड़ने में लगी है, कंपनियां भी अपनी कमाई में कोई कमी नहीं आने देना चाहती हैं और इसलिए लोगों पर सारा बोझ लादना चाहती हैं। शेयर बाजार में कमाई कम हो तो देश भर में हाहाकार मचाया जाता है लेकिन लोग थोड़ी राहत की मांग करें तो उन्हें मंदी का पाठ पढ़ाया जाता है।
नए रोजगार नहीं हैं, पुरानों की छंटनी जारी है, लेकिन सीईओ वर्ग का प्राणी अपनी लाखों की कमाई को करोड़ों की बनाने में रात-दिन छल-छद्म कर रहा है। जनप्रतिनिधि नाम का आदमी जन से एकदम कटा हुआ, कॉरपोरेट जैसी जीवन-शैली में जी रहा है; उसका वेतन-भत्ता हर साल बढ़ता ही जाता है, हमारे पैसों के आधार पर उसकी मुफ्त सुविधाएं अंतहीन होती जा रही हैं।
यह आर्थिक असंतुलन है जिसकी आग लहकने के रास्ते पर है। गांधी कहते हैं कि पूंजी पर सामाजिक नियंत्रण नहीं रहेगा तो यह दानव बन जाएगी। पूंजीवाद अपनी ही पूंजी के जहर से मरेगा, यह तो मार्क्स ने भी समझा था लेकिन उसने पूंजी को वर्गों में बांटने की चूक की थी। गांधी ने इससे गहरी बात कही कि अगर पूंजी का चरित्र नहीं बदलेगा तो उसकी मालिकी किसकी, इस बात से कोई फर्क नहीं पडेÞगा। केंद्रित सत्ता हमेशा ही पूंजी का केंद्रीकरण करेगी क्योंकि वही उसके अनुकूल है। पूंजी जितनी केंद्रित होगी उतनी ही कम उत्पादक होगी और उतना ही भ्रष्टाचार को जन्म देगी। पूंजी मनुष्य के श्रम से पैदा होगी तो हमेशा विकेंद्रित होगी। मर्यादा के बाहर आदमी का श्रम नहीं जा सकता है, इसलिए पूंजी भी मर्यादित होगी और इसलिए बडेÞ भ्रष्टाचार की संभावना पर भी रोक लगेगी।
पूंजी की यह जरूरत और उसकी यह मर्यादा हम समझ लें तो सारी दुनिया में जो आर्थिक उथल-पुथल मची है उसकी जड़ तक पहुंचना आसान हो जाएगा। तब यह समझना भी आसान हो जाएगा कि अमेरिका की पूंजी-लोलुपता और चीन की पूंजी-लोलुपता में बुनियादी तौर पर कोई फर्क क्यों नहीं है। यह समझने में भी दिक्कत नहीं आएगी कि भारतीय पूंजीपति की और विदेशी कंपनियों की पूंजी-लोलुपता की क्रूरता में कोई फर्क क्यों नहीं है। गांधी कहते हैं कि पूंजी का रिश्ता पसीने से नहीं होगा तो वह आदमखोर हो जाएगी। पैसे से पैसा बनाना किसी स्वस्थ और सभ्य समाज का आधार हो ही नहीं सकता।
शेयर बाजार के आंकडेÞ से किसी देश की आर्थिकी को तौलना वैसे ही है जैसे किसी सजी-धजी दुकान को देख कर उसके मालिक की संपन्नता का अंदाजा लगाना। मानवीय समाज में पैसे से पैसा बनाना न किसी सरकार का धर्म है न बैंकों का न किसी पूंजीपति का। कोई बहुत पैसे वाला हो गया तो आप मान लीजिए कि वह अनैतिक साधनों के सहारे चला है, यह गांधी साफ शब्दों में कहते हैं। उनसे पहले यह बात इतने साफ ढंग से ईसा मसीह ने ही कही थी, जब उन्होंने कहा था कि किसी अमीर का स्वर्ग में प्रवेश उतना ही असंभव है जितना असंभव है सूई के छेद से ऊंट का निकलना!
गांधी मानते हैं कि जीने के लिए, जीने को सुविधामय बनाने के लिए और भावी पीढ़ियों को समृद्ध करने के लिए पूंजी की जरूरत है। लेकिन वे पूंजी के लिए एक त्रिसूत्र बनाते हैं- पूंजी बने, पूंजी बढेÞ और पूंजी बंटे। ऐसा न हो तो पूंजी का कुतुबमीनार भी हमारे काम का नहीं है क्योंकि वह हमारे ही सिर पर टूट गिरेगा। आज हमारी सभ्यता के सिर पर पूंजी अभिशाप बन कर टूट रही है। यूरोप में लहकती आग दावानल की शक्ल ले इससे पहले हमें गांधी के करीब पहुंचना चाहिए।
No comments:
Post a Comment