मस्तराम कपूर सरकार जिस भाषा में काम करती, योजनाएं बनाती और मनमाने फैसले जनता पर लादती है, वह आबादी के कुल डेढ़-दो प्रतिशत लोगों को समझ में आ पाती है। इसका परिणाम होता है कि ये फैसले जनता के एक बड़े वर्ग के लिए गले की फांस बन जाते हैं, लेकिन कुछ भ्रष्ट लोगों के लिए ये कामधेनु सिद्ध होते हैं। इसका एक उदाहरण है सरकार की आधार योजना, जिसमें आबादी के हर अमीर-गरीब व्यक्ति का फोटो, उंगलियों के निशान और आंखों की पुतलियों के चित्र लेकर उसका विशेष पहचान-पत्र बनाया जाएगा, जिसके आधार पर उसे सरकार से मिलने वाली सारी सुविधाएं हासिल होंगी। यों इस योजना का लक्ष्य आर्थिक अपराधों को रोकने, अनेक खाते खोल कर कर-चोरी करने वालों पर अंकुश लगाना भी है। लेकिन हमारी सरकार ज्यादा ध्यान गरीब तबके की तरफ दे रही है, जो उसकी नजरों में ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि वे जाली राशन कार्ड आदि बनवा कर सरकार को लूट रहे हैं। पिछले महीने की छह तारीख को एक हिंदी दैनिक ने खबर दी कि यूआईडी नंबर के बिना मोबाइल की घंटी भी नहीं बजेगी। देश में मोबाइलों के ग्राहक पचास करोड़ से ज्यादा हो चुके हैं। खबर के मुताबिक प्रधानमंत्री के सलाहकार सैम पित्रोदा ने कहा है कि सुरक्षा संबंधी बढ़ती चिंताओं, आतंकवादी गतिविधियों में फर्जी दस्तावेजों पर सिम कार्ड हासिल करने आदि मामलों में भी आने वाले समय में सिर्फ यूआईडी नंबर के आधार पर मोबाइल कनेक्शन देने की योजना बन रही है। उन्होंने भारत में मोबाइल फोन की संख्या चौरासी करोड़ बताई, जिसमें लगभग उनसठ करोड़ सक्रिय हैं। यूआईडी प्राधिकरण के महानिदेशक ने आलोचनाओं की सफाई देते हुए कहा कि इससे न केवल सरकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक जल्दी पहुंचाया जा सकेगा, बल्कि यह योजना नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर नंबर के माध्यम से सशक्तीकरण भी करेगी। विशेष पहचान पत्र और राष्ट्रीय रजिस्टर नंबर का प्रयोग जिस व्यापक पैमाने पर बताया जा रहा है और इसके जो फायदे बताए जा रहे हैं, उससे कार्ड बनाने वालों में अफरा-तफरी मचना स्वाभाविक है। खासतौर पर दिल्ली सरकार यह काम युद्ध स्तर पर कर रही है। जानकारी के अभाव में अधिकतर लोग यही मान रहे हैं कि इस कार्ड को हासिल करना बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। लोगों के दिमाग में यह बात नहीं आ रही है कि यह बहुत भयानक गुलामी है जिसे वे 'आ बैल मुझे मार' के अंदाज में आमंत्रित कर रहे हैं। विचित्र है कि सशक्तीकरण के नाम पर लादी जा रही इस गुलामी के लिए सरकार के साथ-साथ हमारा पढ़ा-लिखा वर्ग भी उत्सुक है। उल्लेखनीय है कि अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो इस योजना का विरोध न तो राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं और न बुद्धिजीवी वर्ग। इसके लिए अंधाधुंध पैसा भी खर्च किया जा रहा है। इसके विपरीत जो योजना सभी नागरिकों को स्वाभिमान दे सकती है, उसे राष्ट्र का हिस्सा बना कर अपनाने के लिए न तो कोई सरकार तैयार है और न हमारा पढ़ा-लिखा तबका। बल्कि उसके विरोध के लिए भ्रष्टाचार की आड़ में देशव्यापी आंदोलन चलाया जा रहा है। यह योजना है जातिवार जनगणना की, जो छह हजार जातियों को संविधान की चार श्रेणियों में वर्गीकृत कर जाति व्यवस्था को खत्म करेगी और साथ ही हर नागरिक को संविधान और राष्ट्र का अंश होने की मान्यता देकर उसे असली पहचान और स्वाभिमान भी देगी। मनुष्य को अपने होने का अहसास तब होता है जब वह देखता है कि मैं विराट का हिस्सा हूं। यह अहसास उसे अस्मिता भी देता है और पहचान भी। यह पहचान उस पुलिसिया पहचान से भिन्न है, जो आधार नंबर या यूआईडी कार्ड उसे देने वाला है। डॉ आंबेडकर ने 1923 में बंबई असेंबली में बीजी खेर के प्रश्न के उत्तर में कहा था कि हमें (दलितों को) अपने राष्ट्र का हिस्सा बनने ही कहां दिया गया। जातिवार जनगणना सभी नागरिकों को राष्ट्र का हिस्सा बनाने वाली है। राष्ट्रीय जीवन में राष्ट्र ही विराट है और उसका अंश बनने से ही हममें राष्ट्र के प्रति निष्ठा जाग सकती है। हमारे देश की जनता अभी तक राष्ट्र का अंश बनी ही नहीं। उसकी पहचान उसकी जाति है, जो उसे परंपरा से मिली हुई है, भले ही एक तरह के दोहरेपन के चलते अक्सर इसे नकारने की कोशिश की जाती है। जाति की पहचान को खत्म किए बिना राष्ट्र की पहचान नहीं मिल सकती और यह पहचान संविधान के अनुसार चार श्रेणियों में वर्गीकरण से ही आएगी। लेकिन इसका विरोध सब सरकारें करती रही हैं, एक देवगौड़ा की सरकार को छोड़ कर। यह काम मामूली खर्च से हो जाता अगर जातिवार जनगणना 2011 की जनगणना के साथ करा ली जाती। इसके लिए फॉर्म में सिर्फ दो कॉलम जोड़ने की जरूरत थी। लेकिन हम राष्ट्रीय पहचान और स्वाभिमान के लिए मामूली-सा खर्च करने को तैयार नहीं हुए, जबकि भीषण गुलामी को ओढ़ने के लिए डेढ़ लाख करोड़ खर्च करने को तैयार हैं। |
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7 years ago
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