बनवारी
जनसत्ता, 14 अक्तूबर, 2011 : देश में निर्धन लोगों की संख्या को लेकर हाल ही जो खींचतान हुई, उससे किसी भी स्वाभिमानी भारतीय का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। अपने देशवासियों की ऐसी सार्वजनिक गणना करते हुए, चाहे वह कितनी ही आवश्यक हो, हममें संकोच और ग्लानि का ही भाव होना चाहिए। उसे तार्किक बहस का विषय तो बनाया ही नहीं जा सकता। न केवल इस देश के सभी साधन इस देश के सभी निवासियों के साझे हैं, बल्कि देश के किसी भी व्यक्ति के पुरुषार्थ में बाकी सब देशवासियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष योगदान है। इसलिए देश के निर्धन व्यक्तियों या समुदायों को लेकर अपराध या प्रायश्चित की ही भावना हो सकती है। वैचारिक उदारता या करुणा की भावना नहीं।
गरीबी की रेखा खींचने में लगे महारथियों में तो वैचारिक उदारता या करुणा का भाव भी नहीं है। मोंटेक सिंह अहलूवालिया के लिए वह आर्थिक विवशता या हद से हद आर्थिक प्रगतिशीलता है तो क्या सरकारी बुद्धिजीवियों के लिए राजनीतिक या वैचारिक प्रगतिशीलता। अपनी इस प्रगतिशीलता के अहंकार में वे भिक्षा स्वरूप बांटे गए सस्ते अनाज को अपने दायित्व की इति मान रहे हैं। वे यह भूल जाते हैं कि देश के एक तिहाई से ऊपर लोगों के अधपेट रहते वे भरपेट खा ही नहीं सकते। खाते हैं तो पाप करते हैं। हमारी राजनीतिक और आर्थिक नीतियों का उद्देश्य गरीबों का कल्याण नहीं, देश के सब लोगों को लगभग एक-सा जीवन स्तर उपलब्ध करवाना होना चाहिए।
इस बहस का विद्रूप और विडंबना समझने के लिए हमें पिछली सदी के चौथे-पांचवें दशक में लौटना पड़ेगा जब देश के नेताओं के बीच देश के पुनर्निर्माण की उचित विधि को लेकर बहस छिड़ी हुई थी। महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में ही अपने आप को 'गरीब भारतीयों' के साथ एक-जी कर लिया था। वे गिरमिटियों जैसे ही कपड़े पहनते थे, उन जैसा ही भोजन करते थे और उनके बच्चों को स्कूली शिक्षा उपलब्ध न होने के कारण उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल में भर्ती नहीं होने दिया। भारत में जीवन भर किसानों जैसी साधारण पोशाक ही पहनते रहे। आश्रम की सादगी और अपरिग्रह का व्रत तो वैसे भी उन्हें आम लोगों से भिन्न जीवन स्तर की अनुमति नहीं देता था।
चंपारण की एक-वसना स्त्री की विवशता याद करके उन्होंने 1921 से जीवन भर एक वस्त्र पहनने का व्रत ले लिया था। जरूरत पड़ने पर वे एक चादर जरूर ओढ़ लेते थे। उनके लिए स्वाधीनता की लड़ाई अंग्रेजों के शासन का विरोध मात्र नहीं थी। वह अंग्रेजी शासन द्वारा फैलाई गई कंगाली से लोगों को निकालना भी था। इसीलिए खादी ग्रामोद्योग से लगाकर अनेक रचनात्मक संस्थाओं को आरंभ किया गया था और वे भारत के लोगों की स्वाधीनता का आधार बनी थी। गांधीजी चाहते थे कि स्वतंत्र होने के बाद देश को अपनी सारी शक्ति देश के सात लाख गांवों के पुनर्निर्माण में लगानी चाहिए, क्योंकि वही हमारे समाज और देश का मूल आधार हैं।
भारत के गांव सदा से विश्व के सबसे उन्नत गांव रहे थे। विदेशी शासन में उनका भौतिक ढांचा नष्ट न किया गया होता तो वे भारत की बहुत समर्थ आधारशिला रहे होते। हमें याद रखना चाहिए कि हमारे गांवों में विश्व की सबसे उन्नत खेती और कारीगरी ही नहीं थी, बल्कि अच्छी और ऊंची शिक्षा, अच्छे और ऊंचे चिकित्सक, तालाब और बागों से घिरा हुआ संतुलित पर्यावरण, हर दस-पांच गांवों के बीच एक भव्य मंदिर, कथावाचक, नाट्य मंडलियां, अखाड़़े, शस्त्र आदि की शिक्षा देने वाले गुरुकुल और समाज को न्याय और भाईचारे में समेटे रहने वाली पंचायतें थीं। दुनिया का कोई और देश इतने संपन्न गांवों के अपने यहां रहे होने का दावा नहीं कर सकता।
हमारे किसानों के जीवन में सादगी थी, लेकिन श्रेष्ठ जीवन की समझ और सामर्थ्य भी थी। संगीत और नृत्य जैसी ऊंची कलाएं गांवों में ही पनपी थीं। बड़े-बड़े पंडित गांवों में ही पैदा हुए थे। अच्छे से अच्छा भोजन और वस्त्र गांवों के गुणी परिवारों को सुलभ थे। बड़े से बड़े योद्धा गांवों से ही निकलते थे। गांधीजी को उनकी स्मृति थी। इसलिए वे उनका पुनर्निर्माण चाहते थे। हमारे अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों के लिए वे जवाहरलाल नेहरू की भाषा में अंधेरे कोने थे। इसलिए यह वर्ग कभी ग्राम स्वराज्य को समझ ही नहीं सकता था।
हमारे अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों को भी गरीबी की चिंता थी। बल्कि उनकी सबसे बड़ी चिंता ही देश की गरीबी थी। लेकिन उनकी गरीबी की समझ वही नहीं थी, जो गांधीजी की थी। उन्हें देश की गरीबी इस बात में दिखाई देती थी कि हमारे यहां भौतिक जीवन की वे सब सुविधाएं नहीं थीं जो यूरोप के लोगों ने औद्योगिक क्रांति करके प्राप्त कर ली थी। इसलिए देश की गरीबी उन्हें यूरोप के भौतिक जीवन की तुलना करते हुए दिखाई देती थी। अंग्रेजी शिक्षा ने उनकी जीवन संबंधी समझ को इतना भोंथरा कर दिया था कि उन्हें औद्योगिक सामान की नीरसता दिखाई नहीं देती थी। उनके लिए केवल वह सामान श्रेष्ठ जीवन का मानक था।
आम भारतीय उस समय भी औद्योगिक वस्तुओं को तुच्छ दृष्टि से देखते थे। वनस्पति घी, लोहे या प्लास्टिक की वस्तुएं, शौच और स्नान के एक ठिकाने वाले डिब्बानुमा मकान और अंग्रेजी दवाओं के बारे में वे लंबे समय तक हेय भाव पाले रहे। धीरे-धीरे आर्थिक दबावों ने उन्हें अधिकतर औद्योगिक वस्तुओं को स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। लेकिन हमारे पढ़े-लिखे वर्ग के लिए वह यूरोपीय पोशाक आदर्श हो गई, जिसे अठारह वर्ष की आयु में विलायत जाते हुए महात्मा
हमारे नेताओं पर यूरोप जैसा होने का नशा ऐसा सवार था कि उन्होेंने आर्थिक उन्नति के सामान्य नियमों को ही ताक पर रख दिया। पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि को नाममात्र के लिए वरीयता दी गई। फिर वह भी नहीं रही। बाद में कृषि की तरफ मजबूरन ध्यान दिया भी गया तो देश भर की कृषि को उन्नत करने के लिए नहीं, ऊंची उत्पादकता वाली आधुनिक वैज्ञानिक खेती के कुछ विकसित क्षेत्र पैदा करने के लिए। लेकिन इस वैज्ञानिक खेती का यह हाल है कि भारत के किसान अपनी प्रतिभा और लगन के बल पर ग्यारहवीं शताब्दी में जितना उत्पादन बिना बड़े खर्च के कर लेते थे, आज भारी खर्च के बाद भी नहीं कर पाते। कुछ शताब्दी पहले तक भारत की जो खेती विश्व की सबसे उन्नत खेती गिनी जाती थी वही आज दुनिया की सबसे पिछड़ी खेती हो गई है।
पिछले एक दशक से जिस ऊंची विकास दर का हवाला दिया जा रहा है वह हमने अपने किसी पुरुषार्थ से नहीं, यूरोपीय जातियों के साम्राज्य की सेवा करते हुए पाई है। यह विडंबना ही है कि देश में उत्पादन उतनी तेजी से नहीं बढ़ा, जितनी तेजी से उपभोक्ता वर्ग बढ़ा है। यह उपभोक्ता वर्ग वस्त्र जैसे परंपरागत उद्यम की विदेश व्यापार में ऊंची हिस्सेदारी से बढ़ा है या यूरोप-अमेरिका के सूचना उद्योग में अपने लोगों की प्रतिभा और श्रम झोंक कर। जिन लोगों को बीपीओ खोल कर पैसा कमाना यूरोप-अमेरिका की गुलामी नहीं लगता उन्हें क्या कहा जाए। हमारे आर्थिक सुधारों का उद्देश्य और लक्ष्य देश के लोगों के जीवन को आसान बनाना नहीं है, अपनी अर्थव्यवस्था को यूरोपीय अर्थव्यवस्था से नत्थी करना है।
भारत के स्वतंत्र होने के बाद समाज के सब लोगों को एक-सा जीवन स्तर उपलब्ध करवाने का प्रयत्न होना चाहिए था। लेकिन हमारे योजनाकारों ने वैसा कोई सपना ही नहीं देखा। उन्होंने औद्योगिक तंत्र खड़ा करने का सपना देखा। वह भी उनसे नहीं हो पाया। भारत में औद्योगिक तंत्र की ठीक से नींव ही नहीं पड़ पाई। लंबे समय से हम यह कह रहे हैं कि हमारा विकास खेती या उद्योग पर टिका नहीं है, सेवा क्षेत्र पर टिका है। अर्थशास्त्र का कोई साधारण जानकार भी बता देगा कि यह विकास झूठा विकास है। हमारे पढ़े-लिखे लोग यूरोप-अमेरिका की दलाली कर रहे हैं और अपने उपभोग की वस्तुएं बढ़ाते चले जा रहे हैं। उपभोक्ता वर्ग के तेज विकास का यही कारण है। हमारे करोड़ों नौजवान तो ऊंची पढ़ाई पढ़ कर भी आठ-दस हजार मासिक की नौकरी पर जी रहे हैं, जिसके आधार पर वे एक सामान्य गृहस्थी भी नहीं चला सकते। इस पर भी राज्य ने सबको अच्छी शिक्षा देने या चिकित्सा उपलब्ध करवाने के दायित्व से हाथ खेींच लिए हैं। देश में शिक्षा माफिया और चिकित्सा माफिया फल-फूल रहा है और साधारण लोगों का जीवन इतना कठिन कभी नहीं रहा होगा जितना आज है।
ऐसा नहीं है कि हमें गांधीजी के ग्राम स्वराज्य से बाहर देखने की आवश्यकता नहीं थी। पर गांधीजी का ग्राम स्वराज्य समर्थ गांवों का निर्माण था, रूरल डेवलपमेंट नहीं था। गांधीजी जानते थे कि देश को अपनी सुरक्षा में समर्थ होना चाहिए। उसके लिए सैद्धांतिक अहिंसा की नहीं, सेना और आधुनिक हथियारों की आवश्यकता होगी। सैनिक रूप से समर्थ होने के लिए औद्योगिक विकास आवश्यक था। पर उस दृष्टि से औद्योगिक विकास की नींव पड़ी होती तो वह सार्थक होता। अमेरिका ही नहीं, रूस ने भी अपना औद्योगिक विकास प्रथमत: युद्ध सामग्री का उत्पादन करने के लिए ही खड़ा किया है। उससे रहन-सहन की भौतिक सुख-सुविधाएं भी पनप गर्इं, पर वह प्रतिफल के रूप में। ग्राम स्वराज्य और युद्ध सामग्री पैदा करने में समर्थ औद्योगिक तंत्र साथ-साथ निभ सकते थे। पर नेहरू और उनके सहयोगियों को न देश की सुरक्षा की चिंता थी, न देश की जनता की। उन पर यूरोप जैसा जीवन स्तर पाने का एक नशा था। उनके नशे ने देश को बर्बाद कर दिया।
अगर आज भी देश में एक तिहाई से अधिक आबादी भरपेट खा नहीं पाती तो उसका कारण उसकी अपनी असमर्थता नहीं, हमारी उन्हें गरीबी में झोंके रहने की समर्थता है। वे हमारे लोभ के कारण गरीब हैं। मोंटेक सिंह-मनमोहन सिंह के लिए गरीबी की परिभाषा भी विश्व बैंक या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तय करता है। उनकी चिंता गरीबी दूर करना नहीं, किसी तरह गरीबों को उपभोक्ता बनाना है, जैसे अमेरिका ने बना लिया है। अमेरिका मानता है कि उसके पंद्रह प्रतिशत गरीब हैं, पर वे उपभोक्ता हैं। हमारे प्रगतिशीलों का भी इतना-सा ही लक्ष्य है।
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