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Thursday, October 13, 2011

पिछले दिनों दो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हुए। उनमें से एक में जनता ने भरपूर शिरकत की। बाबा रामदेव के आंदोलन को तितर-बितर करने में सरकार को ज्यादा वक्त नहीं लगा।

अजेय कुमार 
जनसत्ता, 13 अक्तूबर, 2011 : पिछले दिनों दो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हुए। उनमें से एक में जनता ने भरपूर शिरकत की। बाबा रामदेव के आंदोलन को तितर-बितर करने में सरकार को ज्यादा वक्त नहीं लगा।

संलिप्त है। 

उसने पहले तो रामदेव के समर्थकों से अभद्र व्यवहार किया, फिर उस आंदोलन को कुचलने में मिली सफलता के बाद सरकारी तंत्र के हौसले इतने बुलंद हो गए कि उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा अण्णा हजारे को तिहाड़ जेल में डालने की हिमाकत कर डाली। फिर क्या था, जन लोकपाल विधेयक के लिए आंदोलन को जनता के खासे बड़े हिस्से का समर्थन मिला। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी को अण्णा हजारे के बारे में की गई अशोभन टिप्पणी के लिए सार्वजनिक माफी मांगनी पड़ी। अण्णा हजारे ने खुलेआम घोषणा की कि अगर उन पर लगाए गए इल्जामों को कोई सिद्ध कर दे तो वे आजीवन अन्न त्याग देंगे। फिर किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उनकी 'स्वच्छ छवि' पर कीचड़ उछाले।
इसमें दो राय नहीं कि भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत बाबा रामदेव ने की। वे एक योग-गुरु के रूप में विख्यात हैं। उनका प्रचार-तंत्र सीडी बनाने और किताबें छापने तक सीमित नहीं है, टेलीविजन पर आस्था चैनल दिन-रात उनकी देशी-विदेशी यात्राओं को नियमित रूप से दिखाता रहा है और प्राय: मध्यवर्गीय जनता उनके व्यापक प्रभाव में है। इसलिए जब उन्होंने भ्रष्टाचार और कालेधन के विरोध में धरना-प्रदर्शन शुरू किया तो वह जनता, जो उनकी आध्यात्मिक शख्सियत से प्रभावित थी, कुछ  देर के लिए उनके पीछे हो ली। पर वे कोई दीर्घकालीन असर नहीं छोड़ पाए। सरकार ने अगर रामलीला मैदान में उनके समर्थकों के साथ वहशियाना बर्ताव न किया होता तो थोड़ी-बहुत जन भावनाएं जो उनके समर्थन में उमड़ी थीं, वे भी न उमड़तीं।
दरअसल, जनता के समक्ष रामदेव के कारनामों की एक लंबी सूची उपलब्ध थी और जिनके पास नहीं थी उन्हें दिग्विजय सिंह ने उपलब्ध करा दी थी। उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि उज्जैन में रामदेव को एक सटोरिए ने करोड़ों का धन दिया है, जिसका खंडन रामदेव ने आज तक नहीं किया है। बाबा रामदेव की घोषित संपत्ति 1147 करोड़ रुपए है। ये वही रामदेव हैं, जो दस साल पहले साइकिल पर घूम-घूम कर योग सिखाते थे। पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने सरकारी खजाने में कितना कर दिया है। क्या यह चोरी काला धन नहीं? क्या वही धन काला है, जो स्विटरजरलैंड के बैंकों में पड़ा है? 
मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने जबलपुर जिले में उन्हें लगभग चार सौ एकड़ जमीन देने का एलान किया है। यह वह जमीन है जहां आदिवासी कई पुश्तों से खेती करते आ रहे हैं। रामदेव वहां औषधि संस्थान खोलेंगे। पूरी संभावना है कि उनके अन्य औषधि संस्थानों की तरह यहां भी कोई श्रमिक कानून लागू न हो। वहां दवाइयों में कौन से तत्त्व मिलाए जाते हैं, इसकी जानकारी न दी जाए और उनकी कीमत लागत से कई गुना अधिक रखी जाए। 
कहने का तात्पर्य यह कि जब हम रामदेव और अण्णा हजारे के आंदोलनों का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो यह स्वीकार करना होगा कि जहां एक ओर अण्णा हजारे अपनी साफ सुथरी छवि के कारण (और कुछ हद तक कॉरपोरेट मीडिया के जर्बदस्त समर्थन के कारण) एक शक्तिशाली भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा करने और भ्रष्टाचार को एक केंद्रीय मुद्दा बनाने में सफल रहे हैं, वहीं रामदेव इसमें बुरी तरह पिटे हैं। 
भर्तृहरि ने कहा था: 'मनसि वचसि काये पुण्यपीयूष पूर्णा:/ त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभि: प्रीयमाण:/ परगुणपरमाणुं पवर्तीकृत्य केचित्/ निजषदि विकसंत: संति संत: क्रियंत।' यानी ऐसे साधु कितने हैं, जिनके कार्य मन और वाणी पुण्य रूपी अमृत से परिपूर्ण हैं और जो विभिन्न उपकारों द्वारा संसार में प्रेम का संदेश देकर दूसरों के छोटे गुणों को भी पर्वत समान बढ़ा कर अपने हृदय के विकास का साधन बनाते हैं।
लगता है, आडवाणी ने रामदेव प्रकरण से कुछ नहीं सीखा। उन्होंने शायद उन सर्वेक्षणों पर भरोसा करके अपनी रथयात्रा की घोषणा कर डाली, जिनके अनुसार अण्णा-आंदोलन से कांग्रेस को नुकसान और भाजपा को फायदा मिलेगा। शायद अण्णा हजारे के अनशन के बाद पैदा हुई भ्रष्टाचार विरोधी व्यापक जनभावना पर सवार आडवाणी को यह भ्रम हो गया है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान हस्तांतरणीय है। आडवाणी और भाजपा को कम से कम एक बार अपने अंदर झांक कर भी देखना चाहिए। 
क्या संयोग है कि जब आडवाणी अपनी इस छठी यात्रा की घोषणा कर रहे थे, छत्तीसगढ़ के लोकायुक्त भाजपा की राज्य सरकार को वहां हर विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहरा रहे थे! उन्होंने वहां भ्रष्ट अफसरों की तुलना 'तालाब की उन मछलियों से की है, जो ज्यादा से ज्यादा पानी पी जाने के लिए मरी जा रही हैं।' इसके लगभग एक माह पहले कर्नाटक के लोकायुक्त ने भाजपा सरकार और खान माफिया रेड््डी बंधुओं को भारी भ्रष्टाचार का दोषी पाया था। 
पांच सितंबर को सीबीआई ने रेड््डी बंधुओं को गिरफ्तार कर लिया। यह गिरफ्तारी इसलिए हो पाई कि इन्हें जो राजनीतिक संरक्षण कर्नाटक के भूतपूर्व भाजपा मुख्यमंत्री येदियुरप्पा दे रहे थे, उन्हें खुद इस्तीफा देना पड़ा था। उनके इस्तीफे का मुख्य कारण उनके परिवार द्वारा चलाए जा रहे 'प्रेरणा एजुकेशन ट्रस्ट' के भंडाफोड़ का है, जो कई जमीन घोटालों में 

जनता यह भी देख रही है कि इसके पहले कि भ्रष्टाचार के आरोप राज्य सरकार को ही हजम कर जाते, भाजपा ने बिना समय गंवाए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को बदल दिया। कहते हैं,   जनता की याददाश्त कमजोर होती है, पर इतनी कमजोर भी नहीं होती कि वह राजग सरकार के शासन में हुए घोटालों, यानी टेलीकॉम घोटाला, चीनी घोटाला, यूटीआई घोटाला, केतन पारिख का शेयर बाजार घोटाला, प्रतिरक्षा सौदों से जुड़े घोटाले, जिन्हें 'तहलका' ने बेनकाब किया था, ताबूत घोटाला, पेट्रोलियम घोटाला... आदि को भूल जाए। 
हाल ही मध्यप्रदेश में एक ऐसा मामला सामने आया, जिससे भाजपा की राज्य सरकार कठघरे में खड़ी नजर आ रही है। दमोह जिले में पूर्व महिला सरपंच ने अदालत में याचिका दायर कर कहा कि उनके अनपढ़ होने का फायदा उठा कर पंचायत सचिव ने मनरेगा की राशि में भारी भ्रष्टाचार किया है। इतना ही नहीं, सचिव ने इस मद से बैंक से राशि निकालते वक्त बैंक के खजांची से भी मारपीट की। इसकी रिपोर्ट पुलिस विभाग में दर्ज है। इस पूरे प्रकरण पर अदालत ने टिप्पणी की है कि पूरे मध्यप्रदेश में मनरेगा में भ्रष्टाचार व्याप्त है। यहां राज्य सरकार की भूमिका भी संदिग्ध है। उसने घोटाले की जांच करने वाली एजेंसियों को सूचना के अधिकार से बाहर कर दिया है। अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के पहले ही दिन यानी 16 अगस्त को भोपाल में आरटीआई कार्यकर्ता शेहला मसूद की हत्या कर दी गई। 
यह कौन भूल सकता है कि मॉरीशस पथ को भी भाजपा सरकार ने ही खोला था, जिसके चलते बड़े पैमाने पर काले धन को सफेद किया गया। ये तमाम सच्चाइयां भाजपा के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के खोखलेपन को बेनकाब करती हैं। दरअसल, जनता अपने अनुभव से जानती है कि भाजपा और कांग्रेस एक ही थैली के चट््टे-बट््टे हैं।
कहा जा सकता है कि आडवाणी या मनमोहन सिंह ने व्यक्तिगत तौर पर एक ईमानदार सार्वजनिक जीवन व्यतीत किया है और इसलिए अगर ये लोग भ्रष्टाचार के विरोध में निकलते हैं तो इसमें क्या बुरा है। सवाल है कि भ्रष्टाचार को परिभाषित कैसे किया जाए। 
सरकारी लोकपाल विधेयक में भ्रष्टाचार की वही परिभाषा अपना ली गई है, जो भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून 1988 में बताई गई है। इसमें मुख्य जोर व्यक्तिगत लाभ पर है। 'निजी लाभ या खुशहाली के लिए सरकारी सत्ता के दुरुपयोग' की बात कही गई है। भ्रष्टाचार की यह बहुत सीमित समझ है। 
चुनावी धोखाधड़ी से लेकर भाई-भतीजावाद, गबन और गलत निर्णयों के कारण सरकारी खजाने को हुए नुकसान को भी भ्रष्टाचार में शामिल किया जाना चाहिए। वीएसएनएल या किसी अन्य सार्वजनिक प्रतिष्ठान को औने-पौने दामों में किसी सेठ को बेचे जाने से, संभव है, मनमोहन सिंह को कोई व्यक्तिगत फायदा न हुआ हो, पर अगर इससे सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचा हो और किसी व्यक्ति या घराने को नाजायज लाभ हुआ हो तो उन्हें जन-विश्वास के साथ दगा देने का दोषी मानना होगा और इसे भ्रष्टाचार की व्यापक परिभाषा के दायरे में लाया जाना चाहिए।
मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चल रही सरकार संसद में अपना सरकारी लोकपाल बिल लाती है और अधिकतर जनता यह महसूस करती है कि यह बिल अपने क्षेत्राधिकार, शक्तियों और प्रक्रियाओं के मामले में भ्रष्टाचार से लड़ने में बेहद कमजोर है और शक्तिशाली, भ्रष्ट लोगों को चोर दरवाजे मुहैया कराने में बहुत मजबूत है, यहां तक कि इसमें शिकायतकर्ताओं और भ्रष्टाचार को उजागर करने वालों को पुख्ता सबूत न दे पाने की सूरत में दो से पांच साल की सजा और पचास हजार से दो लाख रुपए जुर्माने का प्रावधान है तो ऐसे में सरकार की ईमानदारी पर शक होना लाजिमी है। 
सरकार के सर्वोच्च पद पर बैठा आदमी क्या भ्रष्ट मंत्रियों के लिए जिम्मेदार नहीं है, जब हम देखते हैं कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला या केजी बेसिन गैस घोटाला हो, इन सबमें हजारों करोड़ रुपए के सार्वजनिक संसाधनों को बड़े-बड़े कॉरपोरेट, अफसरशाह और मंत्री हजम कर गए। हमने यह भी देखा कि भ्रष्ट मंत्रियों को कई महीनों तक अपने पदों पर रहने दिया गया, ताकि जांच-प्रक्रिया को तोड़ा-मरोड़ा और न्याय के पथ को बाधित किया जा सके। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही मंत्रियों को जेल भेजा। 
ऐसा नहीं है कि ये भ्रष्टाचार हमारी राजनीतिक व्यवस्था में पहली बार हुए हैं। ये दशकों से जारी हैं, पर उत्तर-उदारवादी काल में इसने सरकार के सर्वोच्च स्तरों पर नीति-निर्धारण प्रक्रिया में गंभीर गड़बड़ियों को पैदा किया है। यह इसलिए संभव हुआ है, क्योंकि अब बड़े कॉरपोरेट, कुछ भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं और अफसरशाहों ने एक तरह का गठजोड़ कायम कर लिया है, जिसने हमारी व्यवस्था में गैर-कानूनी षड्यंत्रों और अपराधों को जन्म दिया है। 
हमारे यहां आर्थिक वृद्धि का जो ढोल दिन-रात पीटा जाता है, उसका नतीजा हमारे सामने है। कुछ कॉरपोरेट घराने और अमीरजादे दुनिया के सबसे अमीर लोगों की गिनती में शामिल हो गए हैं, जबकि देश की अधिकतर जनता दाने-दाने के लिए मोहताज है, उसका जीवन स्तर घट रहा है। जब तक बड़े कॉरपोरेट घरानों, भ्रष्ट राजनेताओं और अफसरशाहों के नापाक गठजोड़ का पर्दाफाश करके उसे खत्म नहीं किया जाता, तब तक भ्रष्टाचार से लड़ना मुश्किल होगा।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/2667-2011-10-13-05-33-19

 

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